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________________ संयम है संतुलन की परम अवस्था महावीर कहते हैं, उसी व्यक्ति की जो शरीर को और अपने को अलग जान लेता है। क्यों? शरीर और अपने को अलग जानने से वासना क्यों मिट जायेगी? क्योंकि सारी वासनाएं शरीर की हैं, आत्मा की कोई वासना है ही नहीं। और जिस दिन आपको पता चल जाये कि शरीर की वासनाओं के लिए मैं परेशान हो रहा था और उसे खो रहा था जो मेरी निजी संपदा है-जहां परम आनंद है; जहां परम प्रकाश है और जहां अमृत का झरना है-उसे मैं खो रहा था क्षुद्र शरीर के पीछे चलकर, उसकी वासनाओं में पड़कर-वासना गिर जायेगी। इसका यह मतलब नहीं है कि आप शरीर की हत्या कर देंगे; मार डालेंगे। लेकिन अब शरीर को आप उतना दे देंगे, जितना शरीर के चलने के लिए जरूरी है। आवश्यकता और वासना का यही फर्क है। ___ आवश्यकता नहीं बांधती, वासना बांधती है। आवश्यकता का मतलब है; शरीर यंत्र है, उसके लिए जरूरी है-जैसा कार को पेट्रोल जरूरी है और तेल देना जरूरी है। और यंत्र की जो भी जरूरत है, उसको पूरा कर देना जरूरी है। न कम देने की जरूरत है, न ज्यादा देने की जरूरत है। जितना जरूरी है, उतना ही देने की जरूरत है। ___ जिसकी वासना हट जाती है, वहां आवश्यकता रह जाती है। आवश्यकता में कोई पीड़ा नहीं है। आवश्यकता जरूरत है। और जरूरत भी तभी तक–महावीर कहते हैं-रहेगी, जब तक पिछले कर्मों का जो मोमेन्टम है, वह पूरा नहीं हो जाता। और जैसे ही पिछले कर्मों की पूरी की पूरी गति समाप्त हो जाती है और पिछले सारे कर्म झड़ जाते हैं-शरीर से संबंध अलग हो जायेगा। फिर उसे भोजन देने की भी कोई जरूरत नहीं है। फिर शरीर से छुटकारा सहज हो जायेगा। उस यंत्र की कोई जरूरत न रही। हमने उसे छोड़ दिया। शरीर और मैं अलग हूं, इसका बोध ही काफी है कि हमारी वासनाएं एकदम निर्जीव हो जायें। मैं शरीर हूं, यही वासना का प्राण है; वासना का केंद्र है। 'जब वह सब जीवों की नानाविध गतियों को जान लेता है, तब पुण्य, पाप, बंध और मोक्ष को भी जान लेता है।' और जैसे ही कोई व्यक्ति अपने भीतर की भेद-रेखा को पहचान लेता है, वह यह भी जान लेता है कि क्या है पुण्य और क्या है पाप-क्या है बंध, क्या है मोक्ष। क्यों? जैसे ही मुझे पता चलता है कि मैं अलग और शरीर अलग, तब शरीर की मानकर चलना पाप और अपनी मानकर चलना पुण्य; तब शरीर की मानकर चलकर पाप करने से बंधन का जन्म, और अपनी मानकर चलने से मोक्ष का जन्म। क्योंकि शरीर की मैं जितनी मानूं उतना वह मनाता है। हम जितने दबें, उतना वह दबाता है। हम जितना अनुसरण करें, उतना वह आश्वस्त हो जाता है कि तुम सदा पीछे आते हो। जितना हम अपने में लीन होने लगें, उतना ही धीरे-धीरे शरीर को पता चलने लगता आपके पीछे आता है, और आपके भीतर का स्वामी, आपके भीतर का मालिक प्रगट हो जाता है-महावीर कहते हैं उस अवस्था को मुक्ता एक बंधा हुआ मन है जो चलता चला जाता है बिना सोचे-समझे कि वह क्या मांग रहा है। कभी आप विचार करते हैं बैठकर कि आपका मन आपको कहां-कहां ले जाता है; क्या-क्या करवाता है। ऐसा कोई पाप नहीं, जो आप छोड़ते हों। मनसविद कहते हैं, ऐसा आदमी खोजना मुश्किल है, जिसने वे सब पाप मन में न किये हों, जो मनुष्यता ने पूरे इतिहास में किये हैं। ___ मन में आप सभी पाप कर लेते हैं। हत्या कर लेते हैं, व्यभिचार कर लेते हैं, चोरी कर लेते हैं—ऐसा कुछ नहीं है जो आप छोड़ देते हैं, जहां तक मन का संबंध है। शरीर से नहीं कर पाते, क्योंकि बहुत उपद्रव बाहर है। अगर आपको पूरी छूट हो तो आप जरूर 521 Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.340052
Book TitleMahavir Vani Lecture 52 Samay hai Santulan ki Param Avastha
Original Sutra AuthorN/A
AuthorOsho Rajnish
PublisherOsho Rajnish
Publication Year
Total Pages1
LanguageHindi
ClassificationAudio_File, Article, & Osho_Rajnish_Mahavir_Vani_MP3_and_PDF_Files
File Size80 MB
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