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________________ पहले ज्ञान, बाद में दया तो तीन रुपये के मारे वह बड़ा परेशान था। मगर रोज खबरें आतीं कि बड़ा चमत्कार हो रहा है; बड़ा अदभुत जादू है, ऐसा कभी देखा नहीं। उसकी जिज्ञासा बढ़ती गयी। आखिर संयम टूट गया। आखिरी दिन जब कि वह मदारी जाने वाला था, वह भी पहुंच गया अपनी पत्नी, बच्चे को लेकर। क्य में खड़ा हो गया। नसरुद्दीन भी यह देखकर कि कंजूस तीन रुपये खर्च करने जा रहा है, उसके पीछे-पीछे गया। वह भी क्यू में खड़ा हो गया कि क्या होता है। जब कंजूस पहुंचा खिड़की पर तो उसने मोल-भाव करना शुरू किया। खिड़की पर बैठी लड़की ने बहुत बार कहा कि मोल-भाव का सवाल ही नहीं है, तुम्हें देखना हो तो तीन रुपये खर्च होंगे। और अब देर मत करो, पहली घंटी हो चुकी है। वह बार-बार खीसे में हाथ डालता और बाहर निकाल लेता। वह कहता कि आखिर डेढ़ रुपये में नहीं हो सकता क्या? और अब क्यू में कोई भी नहीं है, हम तीन ही बचे हैं; एक मुल्ला नसरुद्दीन भर पीछे खड़ा है। __उस लड़की ने कहा, अब आप टिकट लेते हैं या मैं खिड़की बंद करूं? आखिर उसने तीन रुपये...उसकी आंखों में आंसू भी आ गये। उसने तीन रुपये निकालकर दिये। नसरुद्दीन ने कहा : नाउ आइ कैन गो टु माइ होम, आइ हैव सीन द मिरेकल-अब मुझे अंदर जाने की कोई जरूरत ही नहीं है, चमत्कार तो मैंने देख ही लिया। धन भी पकड़ लेता है; प्रेम भी जिसे हम कहते हैं, वह भी पकड़ लेता है और जकड़ लेता है। हम जीवन में जो कुछ भी करते हैं, वह सब हमें गुलाम ही किये चला जाता है। जिज्ञासु महावीर से पूछ रहा है कि वह कौन-सी कला है, किस ढंग से उठे, बैठे, चलें, व्यवहार करें कि कोई बंधन हमें न बांधे। _ 'पाप-कर्म' बंधन का पुराना नाम है। वह पुरानी भाषा है, जिससे हमारी स्वतंत्रता नष्ट न हो और हम उस अवस्था में पहुंच जायें, जहां हम परम स्वतंत्र हैं। वही आनंद है। इसलिए महावीर ब्रह्म को भी परम अवस्था नहीं कहते-मोक्ष को परम अवस्था कहते हैं। क्योंकि जहां ब्रह्म भी मौजूद हो, दूसरा भी मौजूद हो, वहां थोड़ा बंधन होगा। जहां कोई भी न रह जाये; जहां सिर्फ स्वयं का होना ही आखिरी स्थिति है, उस कैवल्य को कैसे पाया जाये ? लेकिन पूछने वाला पूछ रहा है कर्म की भाषा में। जिज्ञासुकर्म की भाषा में ही पूछेगा। महावीर ने उससे कहा : 'आयुष्मन ! साधक विवेक से चले; विवेक से खड़ा हो; विवेक से बैठे; विवेक से सोये; विवेक से भोजन करे; विवेक से बोले, तो उसे पाप-कर्म नहीं बांधता। ' क्रांतिकारी फर्क हो गया। महावीर का जोर कैसे चले, इस पर नहीं है; कैसे बैठे, इस पर नहीं है; कैसे उठे, इस पर नहीं है। सभी क्रियाओं के बीच उन्होंने विवेक को जोड़ दिया; विवेक से चले, विवेक से खड़ा हो, विवेक से बैठे। उठने-बैठने का मूल्य नहीं है, विवेक का मूल्य है। और 'विवेक' महावीर का कीमती शब्द है। विवेक से महावीर का अर्थ है, अवेयरनेस, होश। लेकिन जैन परंपरा उसे बड़ा गलत समझी। जैन परंपरा ने विवेक का शाब्दिक अर्थ लिया है-डिस्क्रिमिनेशन। जैन परंपरा ने सोचा कि भेद करके चलें कि यह गलत है, यह न करूं; और यह ठीक है, यह करूं; यह विवेक का अर्थ लिया। अगर यह विवेक का अर्थ लिया तो जिज्ञासु की और परमज्ञानी की भाषा में कोई फर्क ही नहीं हआ। जिज्ञासु भी यही पूछ रहा था। इसलिए पंडितों को भी लगा कि अर्थ यही होगा महावीर का कि 'विवेक से चले'—इसका मतलब यह कि देखकर चले कि जमीन पर कोई कीड़ा-मकोड़ा तो नहीं चल रहा है, हरी घास तो नहीं उगी है। _ 'विवेक से सोये', देखकर सोये कि कोई स्त्री तो कमरे में मौजूद नहीं है। 'विवेक से भोजन करे', देख ले कि जो भोजन दिया गया है, वह सब तरह से श शद्ध हाथों से बनाया गया है। और उसमें कोई अशुद्धि तो नहीं है। 491 Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.340051
Book TitleMahavir Vani Lecture 51 Pahle Gyan Bad me Daya
Original Sutra AuthorN/A
AuthorOsho Rajnish
PublisherOsho Rajnish
Publication Year
Total Pages1
LanguageHindi
ClassificationAudio_File, Article, & Osho_Rajnish_Mahavir_Vani_MP3_and_PDF_Files
File Size86 MB
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