________________ महावीर-वाणी भाग : 2 लेकिन कोई हमसे कहे, चौबीस घंटे होश रखो। यह बड़ा कठिन है। एक सेकेंड भी होशपूर्वक जीना अत्यंत दूभर है। अत्यंत दूभर ! अगर आप कोशिश करें पांच मिनट रास्ते पर चलने की कि मैं होशपूर्वक चलूंगा, तो आप पायेंगे कि एक सेकेंड भी नहीं चल पाये, दो कदम भी नहीं उठा पाये कि मन कहीं और चला गया। आप फिर यंत्र की भांति चलने लगे। भीतर से इस यांत्रिकता को तोड़ने का सवाल है। भीतर यह यंत्रवतता न रह जाये। कुछ भी हो मेरे जीवन में, हाथ भी हिले, आंख भी झपके, तो मेरी जानकारी के बिना न हो। मैं होश से भरा रहं, तो ही हो। ___ कठिन होगा। तपश्चर्या होगी। और बड़ी चेष्टा के बाद ही, वर्षों और जन्मों की चेष्टा के बाद ऐसी क्षमता भीतर आनी शुरू होती है, ऐसा इंटिग्रेशन और क्रिस्टलाइजेशन होता है, जब आदमी होशपूर्ण होता है। गुरजिएफ पश्चिम में एक महत्वपूर्ण संत था अभी, इस सदी में। मरने के कुछ दिन पहले उसने डेढ़ सौ मील की रफ्तार से कार चलायी और जानकर दुर्घटना की। दुर्घटना भयंकर थी; जानकर की गयी थी। एक चट्टान, एक वृक्ष से जाकर टकरा गया। कोई डेढ़ सौ फ्रैक्चर हुए। पूरे शरीर की हड्डी-हड्डी टूट गयी। कुछ बचा नहीं साबित। लेकिन वह पूरे होश में था, होश नहीं खोया था। तो जब उसके मित्रों ने, शिष्यों ने पूछा कि यह आपने क्या किया? डेढ़ सौ मील की रफ्तार से गाड़ी चलाने का कोई कारण न था इतने संकरे रास्ते पर। कोई प्रयोजन भी नहीं था। कोई जल्दी भी नहीं थी। तो गुरजिएफ ने कहा कि यह सब जानकर किया गया है। मैं मरने के पहले यह देखना चाहता था कि मेरा शरीर चकनाचर हो जाये. तो भी मेरा होश न खोये। अब मैं निश्चिंत हूं। अब मरते वक्त मौत मेरा कुछ भी नहीं बिगाड़ सकती; मेरा होश कायम रहेगा। इससे ज्यादा मौत क्या करेगी ! सारा शरीर टूट गया है, लेकिन एक क्षण को होश नहीं खोया है ! __गुरजिएफ के शिष्य आस्पेन्सकी ने भी मरते वक्त अपने मित्रों को अपने साथ लिया और कार से यात्रा पर निकल गया। कहीं रुके ही नहीं। रात आ जाये, तो भी गाड़ी चलाता रहे। आखिर उसके मित्रों ने कहा, यह क्या कर रहे हो? तीन दिन हो गये, न तुम रुकते, न तुम सोते। ___ तो आस्पेन्सकी ने कहा कि मैं जागते हुए ही मरना चाहता हूं। नींद में पता नहीं, मैं मौत के वक्त ठीक होश रख सकूँ, न रख सकूँ। तो मैं चलते ही रहना चाहता हूं इस कार में; चलाते ही रहना चाहता हूं इसको। मैं मरना चाहता हूं जागता हुआ, ताकि मुझे पक्का पता हो कि जब मौत आयी, तो मैंने भीतर होश जरा भी नहीं खोया। महावीर इस विवेक को कह रहे हैं। उनका विवेक कोई नैतिक बात नहीं है, एक बड़ी यौगिक प्रक्रिया है। आप कुछ भी करते हैं, आपको पता नहीं होता। आप बैठे हैं, आपका पैर हिल रहा है कुर्सी पर। आप कोई कारण बता सकते हैं, क्यों हिल रहा है ? अगर आपको मैं कहूं कि आपका पैर हिल रहा है, आप नाहक पैर हिला रहे हैं, क्योंकि चल नहीं रहे हैं, बैठे हैं, तो पैर क्यों हिला रहे हैं? तो पैर रुक जायेगा। क्योंकि आपको होश आ गया। लेकिन कारण आप भी नहीं बता सकते। __महावीर कहेंगे कि अगर कुर्सी पर बैठकर पैर ही हिल रहा है, तो होशपूर्वक ही हिलाओ, जानते हुए हिलाओ कि कोई कारण है। कारण जरूर है वहां; एक बेचैनी है भीतर। वह बेचैनी पैर से बह रही है। आप बैठे हैं, तो करवट ही बदलते रहेंगे बैठे हुए। वह बेचैनी करवट बदल रही है। भीतर एक बेचैनी का विक्षिप्त ज्वर चल रहा है। कोई चैन नहीं है। ___ इस बेचैनी को जानो और निकालो–लेकिन होशपूर्वक। इसको बेहोशी में मत बहने दो। क्योंकि यह बेहोशी में अगर बह रही है, तो इसका मतलब यह हुआ कि तुम न तो अपने मालिक हो, न अपने कृत्यों के मालिक हो सकते हो। क्योंकि जो इतने छोटे कृत्यों का मालिक नहीं है, वह सोचे कि मैं चोरी नहीं करूंगा, मैं क्रोध नहीं करूंगा, मैं हत्या नहीं करूंगा, उनका आप भरोसा मत करना। 496 Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org