________________ भिक्षु-सूत्र : 3 उवहिम्मि अमुच्छिए अगिद्धे, अन्नायउंछं पुलनिप्पुलाए / कयविक्कयसन्निहिओ विरए, सव्वसंगावगए य जे स भिक्खू / / अलोल भिक्खू न रसेसु गिद्धे, उंछं चरे जीविय नाभिकंखे / इड्ढ़ि च सक्कारण-पूयणं च, चए ठियप्पा अणिहे जे स भिक्खू / / जो अपने संयम-साधक उपकरणों तक में भी मूर्छा (आसक्ति) नहीं रखता, जो लालची नहीं है, जो अज्ञात परिवारों के यहां से भिक्षा मांगता है, जो संयम-पथ में बाधक होनेवाले दोषों से दूर रहता है, जो खरीदने-बेचने और संग्रह करने के गृहस्थोचित धन्धों के फेर में नहीं पड़ता, जो सब प्रकार से निःसंग रहता है, वही भिक्षु है। जो मुनि अलोलुप है, जो रसों में अगृद्ध है, जो अज्ञात कुल की भिक्षा करता है, जो जीवन की चिन्ता नहीं करता, जो ऋद्धि, सत्कार और पूजा-प्रतिष्ठा का मोह छोड़ देता है, जो स्थितात्मा तथा निस्पृही है, वही भिक्षु है। 442 Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org