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________________ महावीर-वाणी भाग : 2 महावीर कहते हैं : संयम के पथ पर बहुत सचेत होने की जरूरत है कि कौन-सी चीज बाधा बन जायेगी। आज चाहे दिखाई भी न पड़ती हो। क्योंकि चीजें जब शुरू होती हैं, बड़ी सूक्ष्म होती हैं। धीरे-धीरे उनका स्थूल रूप निर्मित होना शुरू होता है। बहुत सूक्ष्म होती हैं। किसी ने भिक्षा दी, और आपने धन्यवाद दिया। वह धन्यवाद देने में कहीं कोई संसार नहीं आ रहा है, लेकिन आ सकता है। उस धन्यवाद में ही संसार आ सकता है। तो महावीर कहते हैं, धन्यवाद भी मत देना। भिक्षा किसी ने दी तो, न तो सुख अनुभव करना और न दुख। चुपचाप हट जाना जैसे कुछ हुआ ही नहीं। धन्यवाद देने तक की भी मनाही करते हैं, क्योंकि वह धन्यवाद भी संबंध निर्मित करता है। और जिसको तमने धन्यवाद दिया. उससे तम्हारा भीतरी एक नाता बनना शरू हो गया। और अगर बिल्ली से संसार आ सकता है, तो धन्यवाद से भी आ सकता है। इसलिए महावीर कहते हैं, होश रखना। कोई भी सूक्ष्म ऐसा कृत्य मत करना जिसके पीछे स्थूल जाल निर्मित हो जाये। और हर चीज के पीछे स्थूल निर्मित हो सकता है। इसलिए संयम का पथ अत्यन्त होश का और सावधानी का, सावचेतता का पथ है। 'जो खरीदने-बेचने और संग्रह करने के गृहस्थोचित धन्धों के फेर में नहीं पड़ता...।' गृहस्थी सवाल नहीं है, गृहस्थी के कुछ विशेष धंधे हैं जिनके आसपास गृहस्थी निर्मित होती है। गृहस्थी का मतलब वह स्थूल घर नहीं है, जहां आप रहते हैं; वह पत्नी नहीं है, जहां आप रहते हैं; वह बच्चे नहीं है, जहां आप रहते हैं। गृहस्थी का मतलब है कि आप कुछ अर्थशास्त्र के जगत में जुड़े हैं; कुछ इकनामिक्स के जगत में जुड़े हैं। मेरे एक मित्र हैं। उनको घर बनाने का बड़ा शौक है। फिर वे संन्यासी हो गये। जब वे संन्यस्त नहीं थे, तब भी वे घर बनाते थे। अपने मित्रों के घर भी बनवा देते थे। छाता लगाकर धूप में खड़े रहते, और बड़े खुश होते थे, जब कोई नयी चीज बनवा देते। उनको एक ही शौक है, कि अच्छे घर। उनमें नयी डिजाइन, नये ढंग, नये प्रयोग। फिर वे संन्यस्त हो गये। कोई दस साल बाद मैं उनके गांव के करीब से गुजरता था, जहां वे संन्यस्त होकर रहने लगे थे। ___ तो जो मित्र ड्राइव कर रहे थे, उनसे मैंने कहा कि दस मील का चक्कर तो जरूर होगा, लेकिन मैं देखना चाहता हूं कि वे क्या कर रहे हैं। जरूर वे छाता लिये खड़े होंगे। उन्होंने कहा : आप भी पागल हो गये हैं ! अब वे संन्यस्त हो गये हैं। दस साल हो गये उन्हें संन्यस्त हुए, और अब क्यों छाता लेकर खड़े होंगे? मैंने कहा : वे जरूर खड़े होंगे, फिर भी चलकर देख लें। ___आश्चर्य की बात, वे खड़े थे! आश्रम बनवा रहे थे। छाता लगाये धूप में खड़े थे, आश्रम बनवा रहे थे। वे कहने लगे कि यह जरा आश्रम बन जाये तो शान्ति हो। मैंने कहा : यह शान्ति कभी होनेवाली नहीं। तुम इसी सब उपद्रव से छूटकर संन्यासी हुए थे। लेकिन उपद्रव बाहर नहीं, उपद्रव भीतर है। पर उन्होंने कहा : वह गृहस्थी की बात थी, यह तो आश्रम बन रहा है। शंकराचार्य तक अदालतों में खड़े होते हैं, क्योंकि आश्रम का मुकदमा चल रहा है। फर्क क्या है? आप अपने घर के मुकदमे के लिए अदालतों में खड़े होते हैं; शंकराचार्य अपने आश्रम के मुकदमे के लिए खड़े होते हैं। लेकिन मुकदमा चल रहा है! महावीर कहते हैं : गहस्थोचित धन्धों में-लेन-देन, खरीदना-बेचना-इस तरह की जो वृत्तियां हैं उनसे जरा भी भिक्षु संबधित न हो। अन्यथा उसे पता भी नहीं चलेगा, कब छोटे-से छिद्र से पूरा संसार भीतर चला आया। 'जो सब प्रकार से निःसंग रहता है, वही भिक्षु है।' 456 www.jainelibrary.org. Jain Education International For Private & Personal Use Only
SR No.340049
Book TitleMahavir Vani Lecture 49 Bhikshu Kaun
Original Sutra AuthorN/A
AuthorOsho Rajnish
PublisherOsho Rajnish
Publication Year
Total Pages1
LanguageHindi
ClassificationAudio_File, Article, & Osho_Rajnish_Mahavir_Vani_MP3_and_PDF_Files
File Size82 MB
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