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________________ साधना का सूत्र : संयम ‘जीव को नाविक और संसार को समुद्र / ' वह जो भीतर बैठी हुई आत्मा है, वह जो चेतना है, वह है यात्री / और सारा संसार है समुद्र, उससे पार होना है। वह बुरा है, ऐसा नहीं है। उसके साथ कोई दुर्भाव पैदा करना है, ऐसा भी नहीं। लेकिन वहां कोई किनारा नहीं है, वहां कोई विश्राम की जगह नहीं है। वहां अशांति रहेगी, तूफान रहेंगे, आंधियां रहेंगी। अगर आंधियों, अशांतियों और दुखों और पीड़ाओं से बचना हो तो इस संसार सागर को पार करके, तट पर पहुंच जाना चाहिए, जहां आंधियों और तूफानों का कोई प्रभाव नहीं है / और जब तक कोई सागर में है तब तक डूबने का डर बना ही रहेगा, कितनी ही अच्छी नाव हो / नाव पर ही डूबना, न डूबना निर्भर नहीं है, सागर की उत्ताल तरंगें भी हैं / भयंकर आघात होते हैं, तूफान हैं, आंधियां उठती हैं, वर्षा आती है। इससे जितनी जल्दी कोई पार हो सके। __ अगर हम इस प्रतीक को ठीक से समझें और अपने चारों तरफ संसार को देखें तो वहां क्रोध है, दुख है, पीड़ा है, संताप है, उपद्रव ही उपद्रव है। और हम उसके बीच में खड़े हैं। और यह एक शरीर ही मार्ग है जिससे हम उसके पार उठ सकें। अगर संसार को कोई समुद्र की तरह देख पाये तो बराबर समुद्र की तरह दिखाई पड़ेगा। और महावीर के समय में तो छोटा-मोटा समुद्र था, अब तो बड़ा समुद्र दिखायी पड़ता है। महावीर के जमाने में भारत की आबादी भी दो करोड़ से ज्यादा नहीं थी। अब भारत दुनिया को मात किये दे रहा है, आबादी में / अब ऐसा समझो, जमीन हमने बचने नहीं दी, समुद्र ही समुद्र हुआ जा रहा है। सारी दुनिया की आबादी साढ़े तीन अरब हो गयी है। इस सदी के पूरे होते-होते भारत की ही आबादी एक अरब होगी। आदमियों का सागर है / और आदमियों के सागर में, आदमियों की वृत्तियों, इन्द्रियों, क्रोध, रोष, मान, अपमान, इन सबका भयंकर झंझावात है। अगर महावीर इस सागर को देखें तो वे कहें, अब जरा नाव को और ठीक से संभालना / क्योंकि आदमी अकेला पैदा नहीं होता, अपने सारे पाप, अपने सारे रोग, अपनी सारी वृत्तियों को लेकर पैदा होता है। और हर आदमी इस पूरे सागर में तरंगें पैदा करता है / जैसे मैं सागर में एक पत्थर फेंक दूं, तो वह एक जगह गिरता है, लेकिन उसकी लहरें पूरे सागर को छूती हैं। जब एक बच्चा इस जगत में पैदा पत्थर और गिरा / उसकी लहरें सारे जगत को छूती हैं। वह हिटलर बनेगा, कि मुसोलिनी बनेगा, कि तोजो बनेगा, कि क्या बनेगा, कुछ कहा नहीं जा सकता / उसकी लहरें सारे जगत को कंपायेंगी। यह जो सागर है हमारा, इसको महर्षिजन पार कर जाते हैं। सांसारिक आदमी और धार्मिक आदमी में एक ही है फर्क / सांसारिक वह है जो इस सागर में गोल-गोल चक्कर काटता रहता है। कभी आपने नाव देखी? उसमें दो डांड लगाने पड़ते हैं। एक डांड बन्द कर दें और एक ही डांड चलायें, तब आपको पता लगेगा कि सांसारिक आदमी कैसा होता है। एक ही डांड चलायें तो न गोल-गोल चक्कर खायेगी। जगह वही रहेगी, यात्रा बहुत होगी। पहुंचेंगे कहीं भी नहीं, लेकिन पसीना काफी झरेगा। लगेगा कि पहुंच रहे हैं, और गोल-गोल चक्कर खायेंगे। ___ आपकी जिन्दगी गोल चक्कर तो नहीं है? एक व्हिशियस सर्कल तो नहीं है? क्या कर रहे हैं आप, गोल-गोल घूम रहे हैं? कल जो किया था, वही आज भी कर रहे हैं, वही परसों भी किया था, वही पूरी जिन्दगी किया है रोज-रोज, वही और जिन्दगियों में भी किया है। एक ही नाव का डांड मालूम पड़ती चल रही है और आप गोल-गोल घूम रहे हैं। ___ धार्मिक आदमी गोल नहीं घूमता, एक सीधी रेखा में तट की तरफ यात्रा करता है। दोनों डांड हाथ में होने चाहिए, दोनों पतवार / न तो बायें झुकें, और न दायें / ठीक से समझ लें, यही संयम का अर्थ है। अगर नाव को बिलकुल ठीक चलाना हो तो दोनों साधने पड़ेंगे, न बायें झुक जाये नाव, न दायें / जरा दायें झुके तो बायें झुका लें, जरा बायें झुके तो दायें झुका लें और बीच सीधी रेखा में लीनियर, एक रेखा में यात्रा करें / तो आप किसी दिन तट पर पहुंच पायेंगे। 173 Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.340036
Book TitleMahavir Vani Lecture 36 Sadhna ka Sutra Sanyam
Original Sutra AuthorN/A
AuthorOsho Rajnish
PublisherOsho Rajnish
Publication Year
Total Pages1
LanguageHindi
ClassificationAudio_File, Article, & Osho_Rajnish_Mahavir_Vani_MP3_and_PDF_Files
File Size72 MB
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