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________________ महावीर-वाणी भाग : 2 लिए बस 'मैं ही है। इस 'मैं' को ही अकेला बचा लेना है। जिस दिन 'मैं' अकेला बचता है, 'तू' बिलकुल नहीं होता, उस दिन 'मैं' का अर्थ खो जाता है। क्योंकि 'मैं' में सारा अर्थ 'तू' के द्वारा डाला गया है। ___ मैं' ओर 'तू', साथ-साथ ही हो सकते हैं, अलग-अलग नहीं हो सकते / एक ही सिक्के के दो पहलू हैं / कोई कहता है, सिक्के का सीधा पहलू फेंक दो, तो उल्टा भी उसके साथ फिंक जायेगा। कोई कहता है, सिक्के का उल्टा पहलू फेंक दो, सीधा भी उसके साथ फिक जायेगा। ___ महावीर कहते हैं, 'मैं' ही है अकेला अस्तित्व / जिस दिन 'तू' बिलकुल मिट जायेगा, न कोई परमात्मा, इसलिए महावीर परमात्मा को कोई जगह नहीं देते। परमात्मा का मतलब है 'तू' को जगह देना / कोई 'तू' नहीं 'मैं' ही हूं। तो सारा जिम्मा मेरा है, सारा फल मेरा है, सारे परिणाम मेरे हैं। जो भी भोग रहा हूं, वह 'मैं' हूं, जो भी हो सकूँगा, वह भी 'मैं हूं। इस भांति अकेला 'मैं' ही बचे एक दिन, और सब 'तू' विलीन हो जायें, उन दिन 'मैं' में कोई अर्थ न रह जायेगा, 'मैं' भी गिर जायेगा। चाहे 'तू' को बचायें, चाहे 'मैं' को बचायें, दो में से एक को बचाना मार्ग है। और अंत में जब एक बचता है तो एक भी गिर जाता है, क्योंकि वह दूसरे के सहारे के बिना बच नहीं सकता। कहां से आप शुरू करते हैं, यह अपनी वृत्ति, अपने व्यक्तित्व, अपनी रुझान की बात है. टाइप की बात है। लेकिन दोनों में मेल मत करना / दोनों में कोई मेल नहीं हो सकता, अन्यथा उनका जो नियोजित प्रयोजन है, वही समाप्त हो जाता है। इन दोनों में कोई मेल नहीं है। ___ महावीर और मीरा को कभी भूलकर मत मिलाना / वे बिलकुल एक दूसरे की तरफ पीठ करके खड़े हैं। जहां से वे चलते हैं, वहां उनकी पीठ है। जहां वे मिलते हैं, वहां वे दोनों ही खो जाते हैं। मीरा नहीं बचती, क्योंकि 'मैं' को खोकर चलती है। और जब मैं खो जाता है तो 'तू' भी खो जाता है / महावीर भी नहीं बचते, क्योंकि 'तू' को खोकर चलते हैं, और जब 'तू' बिलकुल खो जाता है, तो 'मैं' में कोई अर्थ नहीं रह जाता, वह गिर जाता है। दोनों पहुंच जाते हैं परम शून्य पर, परम मुक्ति पर, लेकिन मार्ग बड़े विपरीत हैं। ___ और हमारी सबकी तकलीफ यह है कि हम सोचते हैं सदा द्वंद्व की भाषा में, कि या तो महावीर ठीक होंगे, या मीरा ठीक होगी। दोनों में से कोई एक ठीक होगा। ऐसा हमारी समझ में पड़ता है। क्योंकि दोनों कैसे ठीक हो सकते हैं! वहीं गलती शुरू हो जाती है। दोनों ठीक हैं। अगर हम यह भी समझ लेते हैं कि दोनों ठीक हैं, तो फिर हम ताल-मेल बिठाते हैं। हम सोचते हैं, दोनों ठीक हैं, तो दोनों का मार्ग एक होगा। फिर भूल हो जायेगी। दोनों ठीक हैं और दोनों का मार्ग एक नहीं है। इस दुनिया में समन्वयवादियों ने जितना नुकसान किया है, उतना और किन्हीं ने भी नहीं किया है। जो हर चीज को मिलाने की कोशिश में लगे रहते हैं वे खिचड़ियां बना देते हैं / सारा अर्थ खो जाता है। भले मन से ही करते हैं वे, कि कोई कलह न हो, कोई झगड़ा न हो, कोई विरोध न हो, लेकिन विरोध है ही नहीं। जिसको वे मिटाने चलते हैं, वह है ही नहीं। ___ महावीर और मीरा में विरोध नहीं है, मंजिल की दृष्टि से / मार्ग की दृष्टि से भिन्नता है। अलग-अलग छोर से उनकी यात्रा शुरू होती है। और यात्रा हमेशा वहां से शुरू होती है, जहां आप हैं। ध्यान रखें, मंजिल से उसका कम संबंध है, आपसे ज्यादा संबंध है, कहां आप हैं; मैं पूरब में खड़ा हूं, आप पश्चिम में खड़े हैं। हम दोनों के मार्ग एक से कैसे हो सकते हैं। मैं जहां खडा हं, वहीं से मेरी यात्रा शुरू होगी। आप जहां खडे हैं, वहीं से आपकी यात्रा शरू होगी। मीरा जहां खड़ी है, वहीं से चलेगी। महावीर जहां खड़े हैं, वहीं से चलेंगे। मीरा है स्त्रैण चित्त की प्रतीक / महावीर हैं पुरुष चित्त के प्रतीक / स्त्रैण चित्त से मतलब स्त्रियों का नहीं है और पुरुष चित्त से मतलब 120 Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.340034
Book TitleMahavir Vani Lecture 34 Yah Nishreyas ka Marg Hai
Original Sutra AuthorN/A
AuthorOsho Rajnish
PublisherOsho Rajnish
Publication Year
Total Pages1
LanguageHindi
ClassificationAudio_File, Article, & Osho_Rajnish_Mahavir_Vani_MP3_and_PDF_Files
File Size85 MB
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