________________ पण्डित-सूत्र जे य कंते पिए भोए, लद्वे विपिट्ठीकुव्वई। साहीणे चयइ भोए, से हु चाइ त्ति वुच्चई।। वस्थगंधमलंकारं, इत्थियो सयणाणि य। अच्छन्दा जे न भुंजंति, न से चाइ ति वुच्चई।। तस्सेस मग्गो गुरु विद्धसेवा, विवज्जणा बालजणस्स दूरा। सज्झायएगन्तनिसेवणा य, सुत्तत्थसंचिन्तणया धिई य।। जो मनुष्य सुंदर और प्रिय भोगों को पाकर भी पीठ फेर लेता है, सब प्रकार से स्वाधीन भोगों का परित्याग करता है, वही सच्चा त्यागी कहलाता है। जो मनुष्य किसी परतंत्रता के कारण वस्त्र, गंध, अलंकार, स्त्री और शयन आदि का उपभोग नहीं कर पाता, वह सच्चा त्यागी नहीं कहलाता। सद्गुरु तथा अनुभवी वृद्धों की सेवा करना, मूल् के संसर्ग से दूर रहना, एकाग्र चित्त से सत् शास्त्रों का अभ्यास करना और उनके गभ्भीर अर्थ का चिंतन करना, और चित्त में धृतिरूप अटल शांति प्राप्त करना, यह निःश्रेयस का मार्ग है। 118 Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org.