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________________ सारा खेल काम-वासना का उस सम्राट ने कहा कि माया का हाथी है, क्या जान ले पायेगा! भिक्षु चिल्लाता रहा / जबर्दस्ती उसे आंगन में छोड़ दिया। भिक्षु भागता है। और हाथी उसके पीछे चिंघाड़ता है / भिक्षु चिल्लाता है कि क्षमा करो वापस लेता हूँ अपना गिनांन / अभी म हूं अपना सिद्धांत / अब कभी ऐसी भूल की बात न करूंगा। ऐसा मैंने कभी देखा नहीं था कि तर्क का... और यह...! बहुत रोता-गिड़गिड़ाता है, आंसू बहने लगते हैं। सम्राट उसे उठवा लेता है और कहता है, अब शांत होकर बैठ जायें, भूल जायें अपनी बात / भिक्षु ने कहा, 'कौन सी बात?' 'वह जो अभी आप माफी मांग रहे थे, चिल्ला रहे थे।' भिक्षु ने कहा, 'सब माया है-वह रोना, चिल्लाना, तुम्हारा बचाना।' जहां तक तर्क का मामला है, उससे बचना मुश्किल है। सम्राट ने कहा, 'क्या मतलब?' उसने कहा, 'लेकिन दुबारा उस झंझट को खड़ा करने की...' अगर पागल हाथी फिर पागल मालूम पड़ता है, तो फर्क है / भेद अगर दिखायी पड़ता है जरा-सा भी, तो फर्क है / तो फिर हम अपने को धोखा दे सकते हैं। हम कह सकते हैं कि बाहर की तो हमें कोई चिन्ता नहीं है। बाहर तो सब ठीक है, असली चीज भीतर है। लेकिन अगर असली चीज भीतर है , तो उसके प्रमाण बाहर भी मिलेंगे, क्योंकि भीतर बाहर आता रहता है, प्रतिपल / वह जो झरना भीतर छिपा है वह बाहर छलांग लगा कर उचकता रहता है। बाहर फेंकता रहता है अपनी धारा को। अगर कोई झरना यह कहे, कि हम तो भीतर भीतर हैं, बाहर कुछ भी नहीं, बाहर रेगिस्तान है, तो झरना झूठा है। झरने का मतलब ही क्या जो फूटे न / फूटे तभी झरना है। __ अगर भीतर मेरे अप्रमाद है तो बाहर परिणाम होंगे। बाहर हिंसा गिरेगी / अगर भीतर मेरे अप्रमाद है, तो बाहर लोभ गिरेगा। अगर भीतर मेरे अप्रमाद है तो बाहर, वह जो आसक्ति है, मोह है, क्षीण होगा। भीतर की बात करके आदमी अपने को धोखा दे सकता है। बाहर से भी आदमी अपने को धोखा दे सकता है। बाहर इन्तजाम कर लेता है वह कि मैं अहिंसा पालन करूंगा, लोभ नहीं करूंगा, दान करूंगा और भीतर प्रमाद घना होता है। बेहोशी घनी होती है। बाहर संभलकर चलने लगता है। चींटी पर पैर नहीं रखता। लेकिन भीतर दूसरे को दुख-सुख पहुंचाने का भाव घना होता है / वह साधु हो जाता है, लेकिन नरक और स्वर्ग की बातें करता रहता है / वह साधु हो जाता है, लेकिन दूसरों को ऐसे देखता है जैसे वे कीड़े-मकोड़े हों। शायद साधू होने का गहरा मजा यही है कि दुसरे कीड़े-मकोड़े दिखायी पड़ने लगते हैं। हम सभी एक दूसरे को कीड़ा-मकोड़ा देखना चाहते हैं / तरकीबें अलग-अलग हैं। कोई एक बहुत बड़ा मकान बनाकर उस पर खड़ा हो जाता है, झोपड़ों के लोग कीड़े-मकोड़े हो जाते हैं। कोई आदमी चढ़ जाता है राजधानी के शिखर पर, भीड़ कीड़ा-मकोड़ा हो जाती है। एक आदमी त्याग के शिखर पर खड़ा हो जाता है, भोगी कीड़े-मकोड़े हो जाते हैं। और बड़ा मजा यह है कि झोपड़ेवाला आदमी तो शायद अकड़कर भी चल सके महल वाले के सामने कि तुम शोषक, हत्यारे, हिंसक / भीड़ का आदमी राजनीति के शिखर पर खड़े आदमी के सामने अकड़कर भी चल सके कि तुम बेईमान, झुठे लेकिन भोगी, त्यागी के सामने अकड़कर नहीं चल सकता। तो त्याग बारीक से बारीक अकड़ है, जिसका जवाब देना मुश्किल है। भोगी को खुद ही लगता है, हम गलत , तुम ठीक / यह भोगी को इसीलिए लगता है कि त्यागी हजारों साल से उसको समझा रहे हैं, बिल्ट इन कंडीशनिंग कर दी है उसके दिमाग में कि तुम गलत हो। उसको भी लगता है कि गलत तो मैं हं / त्यागी ठीक, त्यागी शिखर पर हो जाता है, भोगी नीचे पड़ जाता है। सारी दुनिया में एक 67 Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org.
SR No.340031
Book TitleMahavir Vani Lecture 31 Sara Khel Kamvasna ka
Original Sutra AuthorN/A
AuthorOsho Rajnish
PublisherOsho Rajnish
Publication Year
Total Pages1
LanguageHindi
ClassificationAudio_File, Article, & Osho_Rajnish_Mahavir_Vani_MP3_and_PDF_Files
File Size72 MB
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