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________________ एक ही नियम : होश चलेगा, भीड़ थोड़ी पीछे चलेगी, जगह चाहिए। अगर भीड़ बिलकुल पास आ जाये तो नेता को तकलीफ शुरू हो जाती है। तकलीफ इसलिए शुरू हो जाती है कि उसका जो विस्तार था मैं का, वह छीना जा रहा है। और कोई आदमियों के नेता की ही ऐसी बात नहीं, अगर बंदरों का झुंड चल रहा हो, तो जो नेता है, उसमें जो बॉस है, उसके आसपास एक आदरपूर्ण स्थान होता है, जिसमें कोई प्रवेश नहीं कर सकता / बाकी बंदर की जो भीड़ है, वह थोड़ी दूर जगह पर बैठेगी। __ अगर आप नेता से मिलने गये हैं तो बिलकुल पास नहीं बैठ सकते / अपने-अपने स्थान पर बैठना पड़ता है / एक जगह है, उसको को मजा आता है / उतना लगता है कि अब मैं मजबूत हूं, शक्तिशाली हूं। इसलिए किसी सम्राट के कंधे पर हाथ जाकर मत रख देना। ___ कहा जाता है कि हिटलर की जिंदगी में कोई उसके कंधे पर हाथ नहीं रख सका / इतना फासला ही कभी मिटने नहीं दिया। गोबेल्स हो कि उसके और निकट के मित्र हों, वह भी एक फासले पर खड़े रहेंगे, दूर, कंधे पर कोई हाथ नहीं रख सकता। हिटलर का कोई मित्र नहीं था। मित्र बनाये नहीं जा सकते, क्योंकि मित्र का मतलब है कि वह जो जगह है अहंकार की दबायेंगे। छीनेंगे / राजनीतिज्ञ के आप अनुयायी हो सकते हैं, शत्रु हो सकते हैं, मित्र नहीं हो सकते। ___ यह जो महावीर कहते हैं, जिसे मोह है, उसे तृष्णा है। अगर दुख है तो जानना कि मोह का सागर भरा है नीचे / अगर मोह है तो जानना कि तृष्णा की दौड़ है पीछे। 'जिसे लोभ नहीं, उसे तृष्णा नहीं।' और इसलिए लोभ गहरे से गहरा है। तृष्णा भी लोभ का विस्तार है, ग्रीड का / मैं ज्यादा हो जाऊं। ज्यादा होने की जो दौड़ है, वह तृष्णा है। ज्यादा होने की जो वृत्ति है, वह लोभ है। __ तृष्णा परिधि है, लोभ केंद्र है / परिधि सफल हो जाये तो मोह निर्मित होता है। परिधि असफल निर्मित हो जाये, असफल हो जाये तो क्रोध निर्मित होता है / जितनी तृष्णा सफल होती जाये, मोह बनता जाता है, और जितनी असफल हो उतना दुख / असफल हो, तो दुख। 'जिसे लोभ नहीं, उसे तृष्णा नहीं। और जो ममत्व से अपने पास कुछ भी नहीं रखता, उसका लोभ नष्ट हो जाता है।' क्या है उपाय फिर? एक ही उपाय है, 'मेरे' को क्षीण करते जाना / पत्नी होगी, पर मेरे का भाव क्षीण कर लें / बेटा होगा, पर मेरे का भाव क्षीण कर लें। मकान को रहने दें, मकान को गिराने से कुछ न गिरेगा। मेरे को हटा लें / मकान पर वह जो मेरे को चिपका दिया है, वह जो आपके प्राण भी मकान के ईंट-गारे में समा गये हैं, उनको वापस हटा लें। मेरे को हटाते जायें, ममत्व को तोड़ते चले जायें, और एक दिन ऐसी स्थिति आ जाये कि मकान तो दूर, जो और पास का मकान है-देह, शरीर—इससे भी पीछे हटा लें। ये हड्डियां भी मेरी नहीं; हैं भी नहीं / यह मांस भी मेरा नहीं, यह खून भी मेरा नहीं, यह चमड़ी भी मेरी नहीं / है भी नहीं / मैं नहीं था, तब ये हड्डियां किसी और की हड्डियां थीं, और मैं नहीं रहूंगा तब यह मांस किसी और का मांस हो जायेगा। यह खून किसी और की नसों में बहेगा। और यह चमड़ी किसी और के मकान का घेरा बनेगी। यह मेरा है नहीं। यह मेरे पहले भी था और मेरे बाद भी होगा। इससे भी अपने को हटा लें। फिर और भीतर मैं का एक मकान है, मन का / कहते हैं, मेरे विचार / तो जरा गौर से देखें, कौन-सा विचार आपका है? सब विचार पराये हैं। सब संग्रह हैं, सब स्मृति है। वहां से भी अपने को तोड़ लें। तोड़ते चले जायें ममत्व से उस घड़ी तक, उस समय तक, जब तक कि मेरा कहने योग्य कुछ भी बचे। जब कुछ भी न बचे मेरा कहने योग्य, तब जो शेष रह जाता है, उसका नाम आत्मा है। Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.340030
Book TitleMahavir Vani Lecture 30 Ek hi Niyam Hosh
Original Sutra AuthorN/A
AuthorOsho Rajnish
PublisherOsho Rajnish
Publication Year
Total Pages1
LanguageHindi
ClassificationAudio_File, Article, & Osho_Rajnish_Mahavir_Vani_MP3_and_PDF_Files
File Size68 MB
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