SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 16
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ महावीर-वाणी भाग : 2 एडिसन नाश्ते में भी बेहोश हो जाता है और जीसस सूली पर भी होश में हैं। इसलिए महावीर कहते हैं, प्रमाद को मैं कहता हूं, मूर्खता / अप्रमाद को मैं कहता हूं, पांडित्य, प्रज्ञा / 'जिसे मोह नहीं, उसे दुख नहीं।' जो प्रज्ञावान है, उसको यह सूत्र खयाल में आ जायेगा जीवन की व्यवस्था का / जीवन की जो आंतरिक व्यवस्था है वह यह है, जिसे मोह नहीं, उसे दुख नहीं। अगर आपको दुख है, तो आप जानना कि मोह है। दुख हम सभी को है / कम ज्यादा, और हर आदमी सोचता है, उससे ज्यादा दुखी आदमी संसार में दूसरा नहीं है। हर आदमी यह सोचता है, सारे दुख के हिमालय वही ढो रहा है। ___ 'जिसे मोह नहीं, उसे दुख नहीं। अगर आपको ऐसा लगता हो कि दुख के हिमालय ढो रहे हैं तो समझ लेना कि मोह के प्रशांत सागर भी आपके भीतर होंगे। मोह के बिना दुख होता ही नहीं। जब भी दुख होता है, मोह से होता है। __मोह का अर्थ है-ममत्व / मोह का अर्थ है—मेरा का भाव / मकान में आग लग गयी, मेरा है तो दुख होता है। मेरा नहीं है तो दुख नहीं होता। मेरा नहीं है तो सहानुभूति दिखा सकते हैं आप, लेकिन उसमें भी एक रस होता है। मेरा है, तब दुख होता है। मकान वही है, लेकिन अगर इन्श्योर्ड है तो उतना दुख नहीं होता / बीमा कंपनी का जाता होगा, सरकार का जाता होगा; अपना क्या जाता है? ___ अपना है, तो दुख होता है। आपका बेटा मर गया, छाती पीट रहे हैं। और तभी एक चिट्ठी आपके हाथ लग जाये, जिससे पता चले कि यह बेटा आपसे पैदा नहीं हुआ। पत्नी का किसी और से संबंध था, उससे पैदा हुआ। आंसू तिरोहित हो जायेंगे, दुख विलीन हो जायेगा। छुरी निकाल कर पत्नी की तलाश में लग जायेंगे कि पत्नी कहां है। क्या हो गया? वही व्यक्ति मरा हुआ पड़ा है सामने / मरने में कोई कमी नहीं होती है, आपकी इस जानकारी से, इस पत्र से / मौत हो गयी है, लेकिन मौत का दुख नहीं है, मेरे का दुख है / जो हमारा नहीं है उसे हम मारना भी चाहते हैं। जो हमारे विपरीत है, उसको हम नष्ट भी करना चाहते हैं। जो अपना है, उसे बचाना चाहते हैं। महावीर कहते हैं, जिसे मोह नहीं, उसे दुख नहीं।' अगर दुख है तो जानना कि मोह है। __'जिसे तृष्णा नहीं, उसे मोह नहीं।' अगर मोह है तो उसके भीतर तृष्णा होती है। 'मेरा', हम कहते ही क्यों हैं? क्योंकि बिना 'मेरे' के की कोई जगह नहीं। जितना मेरे 'मेरे' का विस्तार होता है उतना बड़ा मेरा 'मैं' होता है। इसलिए मैं की एक ही तृष्णा है, एक ही वासना है कि बड़ा, बड़ा हो जाऊं। . जिसके पास बड़ा राज्य है, उसके पास बड़ा मैं है। एक राजा का राज्य छीन लो, राज्य ही नहीं छिनता उसका, मैं भी छिन जाता है, सिकुड़ जाता है। एक धनी का धन छीन लो, धन ही नहीं छिनता, धनी सिकड़ जाता है। ___ जो भी आपके पास है, वह आपका फैलाव है / मैं की एक ही तृष्णा है कि मैं ही बचूं / यह सारा ब्रह्माण्ड मेरे अहंकार की भूमि बन जाये / यह जो वासना है कि मैं फैलूं, मैं बचूं, सुरक्षित रहूं, सदा रहूं, अमरत्व को उपलब्ध हो जाऊं, मेरी कोई सीमा न हो, अनंत हो जाये मेरा साम्राज्य, तो यह है तृष्णा, यह है डिजायर / महावीर कहते हैं, जिसे तृष्णा नहीं, उसे मोह नहीं।' जिसको अपने मैं को बढ़ाना ही नहीं है, वह मेरे से क्यों जुड़ेगा? छोटे झोपड़े में जब आप रहते हैं तो आपका मैं भी उतना ही छोटा रहता है, झोपड़ेवाले का मैं / बड़े महल में रहते हैं तो बड़े महल वाले का मैं। मैं आपका खोज करता है, कितनी बड़ी जगह घेर ले। स्पेस चाहिए मैं को फैलने के लिए। इसलिए आप देखते हैं कि अगर एक नेता चल रहा हो भीड़ में, तो बिलकुल भीड़ के साथ नहीं चलता, थोड़ी स्पेस, थोड़ा आगे 54 Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.340030
Book TitleMahavir Vani Lecture 30 Ek hi Niyam Hosh
Original Sutra AuthorN/A
AuthorOsho Rajnish
PublisherOsho Rajnish
Publication Year
Total Pages1
LanguageHindi
ClassificationAudio_File, Article, & Osho_Rajnish_Mahavir_Vani_MP3_and_PDF_Files
File Size68 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy