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________________ महावीर-वाणी भाग : 1 बोल रही हैं जो कृष्णमूर्ति बोलते हैं। लेकिन कोई कितना ही ग्रामोफोन रिकार्ड हो जाये, कार्बन कापी हो होता है। ओरिजनल तो हो नहीं सकता, कोई उपाय नहीं है। तो जिन मित्रों ने सुना, उन्होंने कहा कि आप ठीक कृष्णमूर्ति की ही बात कह रही हैं, आप उनका ही प्रचार कर रही हैं, तो उनको बड़ा दुख हुआ। उन्होंने कहा, मैं उनका प्रचार नहीं कर रही हूं, यह तो मेरा अनुभव है। उन मित्रों ने कहा, इसमें एक शब्द आपका नहीं है, यह आपका अनुभव कैसा! चुकता उधार है। ___ तो उन देवी ने बड़ी कुशलता की। वह कृष्णमूर्ति के पास गयीं। उन देवी ने ही मुझे सब बताया है। कृष्णमूर्ति के पास गयीं और कृष्णमूर्ति से उन्होंने कहा, कि आप कहिए, लोग कहते हैं कि जो भी मैं बोल रही हूं वह मैं आपसे सीख कर बोल रही हूं। और मैं तो अपने भीतरी अनुभव से बोल रही हूं। तो आप मुझे बताइए कि मैं आपकी बात बोल रही हूं कि अपने भीतरी अनुभव से बोल रही हूं? तो कृष्णमूर्ति जैसा विनम्र आदमी क्या कहेगा? कृष्णमूर्ति ने कहा कि बिलकुल ठीक है। अगर तुम्हें लगता है, तुम्हारे अनुभव से बोल रही हो तो बिलकल ठीक है। यह सर्टिफिकेट हो गया। अब वह देवी कहती फिरती हैं कि कृष्णमूर्ति ने खुद कहा है कि तुम अपने अनुभव से बोल रही हो। तुम्हारे अनुभव के लिए भी कृष्णमूर्ति के सर्टिफिकेट की जरूरत है, तभी वह प्रमाणिक होता है। शब्द कृष्णमूर्ति के, प्रमाण-पत्र, कृष्णमूर्ति का, और इतनी विनम्रता भी नहीं कहने की कि मैंने तुमसे कुछ सीखा है। यह है हमारी बेईमानी। लेकिन मैं आपसे कहता हूं कि चालीस साल नहीं पचास साल कृष्णमूर्ति को कोई सुनता रहे, जो शिष्य-भाव से सुनने नहीं गया है वह कुछ भी सीख नहीं पायेगा। शब्द सीख लेगा। उसके अंतस में कोई क्रांति घटित नहीं होगी। क्योंकि जिसके अंतस में अभी इतनी विनम्रता भी नहीं है कि जिससे सीखा हो उसके चरणों में सिर रख सके, चरणों में सिर रखने की बात दूर है, जो इतना कह सके कि मैंने किसी से सीखा है। इतना भी जिसका विनम्र भाव नहीं है, उसके भीतर कोई क्रांति नहीं हो सकती। उसके चारों तरफ पत्थर की दीवार खड़ी है अहंकार की। भीतर तक कोई किरण पहुंच नहीं सकती। हां, शब्द हो सकते हैं जो दीवार पर टंक जायेंगे, खुद जायेंगे पत्थर पर, लेकिन उनसे कोई हृदय रूपांतरित नहीं होता। यह बड़े मजे की बात है, यह तो उचित है कि गुरु कहे कि मैं तुम्हारा गुरु नहीं। यह उचित नहीं है कि शिष्य कहे, मैं तुम्हारा शिष्य नहीं। क्यों? ... क्योंकि इन दोनों के बीच औचित्य का एक ही कारण है। अगर गुरु कहे, मैं तुम्हारा गुरु हूं तो यह भी अहंकार की भाषा है। और शिष्य अगर कहे कि मैं तुम्हारा शिष्य नहीं तो यह भी अहंकार की भाषा है। गहरा ताल-मेल तो वहां खड़ा होता है, जहां गुरु कहता है, मैं कैसा गुरु ! और जहां शिष्य कहता है, मैं शिष्य हूं। वहां मिलन होता है। लेकिन हम हैं बेईमान / जब गुरु कहता है, मैं तुम्हारा गुरु नहीं, तब वह इतना ही कह रहा है कि मेरा अहंकार तुम्हारे ऊपर रखने की कोई भी जरूरत नहीं है। हम बड़े प्रसन्न होते हैं। तब हम कहते हैं, बिलकुल ठीक, जब तुम ही गुरु नहीं हो, तो हम कैसे शिष्य! बात ही खत्म हो गयी। हम या तो ऐसे गरु को मानते हैं जो चिल्लाकर हमारी छाती पर खडे होकर कहे कि मैं तम्हारा गरु हं। या तो हम उसको मानते हैं—वैसा गुरु व्यर्थ है, जो आपसे चिल्लाकर कहता है कि मैं तुम्हारा गुरु हूं। जिसको अभी यह भाव भी नहीं मिटा कि जो दूसरे को सिखाने में भी अपने अहंकार का पोषण कर रहा हो, वह गुरु होने के योग्य नहीं है। इसलिए जो गुरु कहे, मैं तुम्हारा गुरु हूं वह गुरु होने के योग्य नहीं है। जो गुरु कहे, मैं तुम्हारा गुरु नहीं वह गुरु होने के योग्य है। 512 Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.340027
Book TitleMahavir Vani Lecture 27 Manushya Badhte Hue Hosh ki Dhara
Original Sutra AuthorN/A
AuthorOsho Rajnish
PublisherOsho Rajnish
Publication Year
Total Pages1
LanguageHindi
ClassificationAudio_File, Article, & Osho_Rajnish_Mahavir_Vani_MP3_and_PDF_Files
File Size79 MB
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