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________________ महावीर-वाणी भाग : 1 ही यह है कि आपकी तैयारी परी है कि न डालने देंगे। ___ आपकी इच्छा के विपरीत कुछ भी नहीं डाला जा सकता है, और उचित भी है कि आपकी इच्छा के विपरीत कुछ भी न डाला जा सके, अन्यथा आपकी स्वतंत्रता नष्ट हो जायेगी। अगर आपकी इच्छा के विपरीत कुछ डाला जा सके तो आदमी फिर गुलाम होगा। आपकी स्वेच्छा आपको खोलती है। आपकी विनम्रता आपके पात्र को सीधा रखती है। आपका शिष्य-भाव, आपकी सीखने की आकांक्षा, आपके ग्रहण भाव को बढ़ाती है। सहायता तो मैं करूंगा ही, लेकिन सहायता होगी कि नहीं, यह नहीं कहा जा सकता। सहायता पहुंचेगी या नहीं पहुंचेगी, यह नहीं कहा जा सकता। सूरज तो निकलेगा ही, लेकिन आपकी आंखें बंद होंगी तो सूरज आपकी आंखों को खोल नहीं सकता। आंखें खुली होंगी तो प्रकाश मिल जायेगा, आंखें बंद होंगी तो प्रकाश बंद रह जायेगा। ___ इन मित्र को अगर हम ऐसा कहें तो ठीक होगा। वह सूरज से कहे कि अगर मैं बंद आंखें तुम्हारे पास आऊं तो मुझे प्रकाश दोगे कि नहीं? सरज कहेगा, प्रकाश तो दिया ही जा रहा है, मेरा होना ही प्रकाश का देना है। उस संबंध में कोई शर्त नहीं है। लेकिन अगर तुम्हारी आंखें बंद होंगी तो प्रकाश तुम तक पहुंचेगा नहीं। प्रकाश आंख के द्वार पर आकर रुक जायेगा। सहायता बाहर पड़ी रह जायेगी। वह भीतर तक कैसे पहुंचेगी? भीतर तक पहुंचने की जो ग्रहणशीलता है, उसी का नाम शिष्यत्व है। उन मित्र ने पूछा है कि कृष्ण ने कहा था कभी, 'मामेकं शरणं ब्रज। आज कोई कहेगा तो कार्यक्षम होगा कि नहीं?' जिन्हें सीखने की अभीप्सा है, उन्हें सदा ही कार्यक्षम होगा, और जिन्हें सीखने की क्षमता नहीं है, उन्हें कभी भी कार्यक्षम नहीं होगा। उस दिन भी कृष्ण अर्जुन से कह सके, दुर्योधन से कहने का कोई उपाय नहीं था। उस दिन भी। __ सतयुग और कलियुग युग नहीं हैं, आपकी मर्जी का नाम है। आप अभी सतयुग में हो सकते हैं, दुर्योधन तब भी कलियुग में था। व्यक्ति की अपनी वृत्तियों के नाम हैं। ___ अगर सीखने की क्षमता है तो कृष्ण का वाक्य आज भी अर्थपूर्ण है। नहीं है क्षमता तो उस दिन भी अर्थपूर्ण नहीं था। सीखने की क्षमता बड़ी कठिन बात है। सीखने का हमारा मन नहीं होता। अहंकार को बड़ी चोट लगती है। कल एक मित्र दो विदेशी मित्रों को साथ लेकर मेरे पास आ गये थे, पति पत्नी थे दोनों। और दोनों ईसाई धर्म के प्रचारक हैं। आते ही उन मित्रों ने कहा कि आई बिलीव इन द टू गॉड। मेरा सच्चे ईश्वर में विश्वास है। मैंने उनसे पूछा कि कोई झुठा ईश्वर भी होता है? ईश्वर में विश्वास है, इतना ही कहना काफी है, सच्चा और क्यों? हर वाक्य के साथ वे बोलते थे, आई बिलीव इन दिस, वाक्य ही शुरू होता था, आई बिलीव इन दिस, मेरा इसमें विश्वास है। मैंने उनसे पूछा कि जब आदमी जानता है तो विश्वास की भाषा नहीं बोलता। कोई नहीं कहता कि सूरज में मेरा विश्वास है। अंधे कह सकते हैं। __ अज्ञान विश्वास की भाषा बोलता है। विश्वास की भाषा आस्था की भाषा नहीं है। आस्था बोली नहीं जाती, आस्था की सुगंध होती है जो बोला जाता है, उसमें से आस्था झलकती है। आस्था को सीधा नहीं बोलना पड़ता। __तो मैंने उनसे कहा कि हर वाक्य में यह कहना कि मेरा विश्वास है, बताता है कि भीतर गहरा अविश्वास है। इसमें से किसी भी चीज का आपको कोई पता नहीं है। फिर वे चौंक गये। तब उन्होंने अपने दरवाजे बंद कर लिए। फिर उन्होंने मझे सनना बंद कर दिया। खतरा है। फिर वे जोर-जोर से बोलने लगे, ताकि मैं जो बोल रहा हूं, वह उन्हें सुनायी ही न पड़े। मैं बोलता था, तब भी वे बोल रहे हैं। फिर वे अनर्गल बोलने लगे। क्योंकि जब द्वार कोई बंद कर लेता है तो संगतियां खो जाती हैं। फिर तो बड़ी मजेदार बातें हुईं। वे कहने लगे, ईश्वर प्रेम है। मैंने उनसे पूछा, फिर घृणा कौन है? तो वे कहने लगे, शैतान है। मैंने पूछा शैतान को किसने 510 Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.340027
Book TitleMahavir Vani Lecture 27 Manushya Badhte Hue Hosh ki Dhara
Original Sutra AuthorN/A
AuthorOsho Rajnish
PublisherOsho Rajnish
Publication Year
Total Pages1
LanguageHindi
ClassificationAudio_File, Article, & Osho_Rajnish_Mahavir_Vani_MP3_and_PDF_Files
File Size79 MB
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