________________ विनय-सूत्र आणा-निद्देसकरे, गुरुणमुववायकारए। इंगिया-ऽऽ गारसंपन्ने, से विणीए त्ति वुच्चई।। अह पन्नरसहिं ठाणेहिं, सुविणीए त्ति वुच्चई। नीयावत्ती अचवले, अमाई अकुऊहले।। अप्पं च अहिक्खिवई, पबन्धं च न कुव्वई / मेत्तिज्जमाणो भयई, सुयं लद्धं न मज्जई।। नय पावपरिक्खेवी, न य मित्तेसु कुप्पई। अप्पियस्साऽवि मित्तस्स, रहे कल्लाण भासई।। कलहडमरवज्जिए, बुद्धे अभिजाइए। हरिमं पडिसंलीणे, सुविणीए त्ति वुच्चई।। जो मनुष्य गुरु की आज्ञा पालता हो, उनके पास रहता हो, गुरु के इंगितों को ठीक-ठीक समझता हो तथा कार्य-विशेष में गुरु की शारीरिक अथवा मौखिक मुद्राओं को ठीक-ठीक समझ लेता हो, वह मनुष्य विनय संपन्न कहलाता है। निम्नलिखित पंद्रह लक्षणों से मनुष्य सुविनीत कहलाता है-उद्धत न हो, नम्र हो। चपल न हो, स्थिर हो। मायावी न हो, सरल हो। कुतूहली न हो, गंभीर हो। किसी का तिरस्कार न करता हो। क्रोध को अधिक समय तक न टिकने देता हो। मित्रों के प्रति पूरा सदभाव रखता हो। शास्त्रों से ज्ञान पाकर गर्व न करता हो। किसी के दोषों का भंडाफोड़ न करता हो। मित्रों पर क्रोधित न होता हो। अप्रिय मित्र की भी पीठ-पीछे भलाई ही गाता हो। किसी प्रकार का झगड़ा-फसाद न करता हो। बुद्धिमान हो। अभिजात अर्थात कुलीन हो। आंख की शर्म रखने वाला एवं स्थिरवृत्ति हो / 482 Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org