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________________ विनय शिष्य का लक्षण है महावीर कहते हैं कि जो शारीरिक, मौखिक मुद्राओं तक को ठीक-ठीक समझ लेता हो, वह मनुष्य विनय-संपन्न कहलाता है। वह आदमी विनीत है, वह आदमी हम्बल है। क्या मतलब हुआ विनीत का? विनीत का मतलब हुआ कि आप बीच-बीच में न आते हों, आप अपने को घुमा-घुमा कर बीच में न ले आते हों। जो कहा जा रहा हो, उसको ही समझ लेते हों अपने को बीच में लाये बिना, तो आप शिष्य हैं। विद्यार्थी को मनाही नहीं है, वह अपने को बीच में लाये, मजे से लाये। शिष्य को मनाही है, क्योंकि विद्यार्थी केवल सूचनाएं ग्रहण कर रहा है। अपने लाभ के लिए। जो उसके लाभ का हो ग्रहण कर ले, जो उसके लाभ का न हो छोड़ दे। इसलिए शिक्षक और विद्यार्थी के बीच संबंध लाभ-हानि का है। जो मेरे काम का नहीं है वह मैं छोड़ दूंगा जो मेरे काम का है वह चुन लूंगा यह उचित ही है। लेकिन शिष्य और गुरु के बीच संबंध लाभ-हानि का नहीं है। यह गुरु को पीने आया है। इसमें यह अगर अपने को बीच-बीच में डालता है तो जो भी यह निष्कर्ष लेगा वह इसके अपने होंगे। गुरु से कोई संबंध न हो पायेगा। इसलिए कई बार ऐसा होता है कि गुरु के पास लोग वर्षों रहते हैं और फिर भी गुरु को बिना छुए लौट जाते हैं। वर्षों रहा जा सकता है। वर्ष बड़े छोटे हैं, जन्मों रहा जा सकता है। वे अपने को ही सुनते रहते हैं। ___ विनय का यह तो बहुत गहरा अर्थ हुआ। विनय का अर्थ हुआ, अपने को सब भांति छोड़ देना। असल में विद्यार्थी होना हो शिष्य होना हो तो अज्ञानी होना शर्त है। अपने सारे ज्ञान को तिलांजलि दे देना. खाली स्लेट की तरह. खाली गुरु और लिख दे तो सब उपद्रव ही हो जायेगा और जो अर्थ निकलेंगे वे अनर्थ सिद्ध होंगे। ___यह अनर्थ घट रहा है, यह हर आदमी पर घट रहा है। हर आदमी एक भीड़ है। उसमें न मालूम कितने विचार हैं। और जब एक विचार उस भीड़ में घुसता है तो वह भीड़ तत्काल उस विचार को बदलने में लग जाती है, अपने अनुकूल करने में लग जाती है। जब तक वह विचार अनुकूल न हो जाये, तब तक आपका पुराना मन बेचैनी अनुभव करता है। जब वह अनुकूल हो जाये, तब आप निश्चिंत हो जाते हैं। __गुरु के पास आप जब जाते हैं तब गुरु जो विचार देता है, उसको आपके पूर्व विचारों के अनुकूल नहीं बनाना है, बल्कि इस विचार के अनुकूल सारे पूर्व विचारों को बनाना है, तब विनय है, चाहे सब टूटता हो, चाहे सब जाता हो। __ आपके पास है भी क्या। हम बड़े मजेदार लोग हैं, जिसको बचाते रहते हैं, कभी यह सोचते नहीं हैं, है भी क्या! मेरे पास लोग आते हैं। वे कहते हैं, मेरा विचार तो ऐसा है। मैं उनसे पूछता हूं, अगर यह विचार तुम्हें कहीं ले गया हो तो मजे से पकड़े रहो, मेरे पास आओ ही मत। नहीं, वे कहते हैं, कहीं ले तो नहीं गया। तो फिर इस मेरे विचार को कृपा करके छोड़ दो। जो विचार तुम्हें कहीं नहीं ले गया है, उसी को लेकर अगर तुम मेरे पास भी आते हो और मैं तुमसे जो कहता हूं, उसी विचार से उसकी भी जांच करते हो तो मेरा विचार भी तुम्हें कहीं नहीं ले जायेगा। तुम निर्णायक बने रहोगे। लोग सुनते ही नहीं।। मार्क ट्वैन ने एक मजाक की है, बड़ा संपादक था, बड़ा लेखक था और एक हंसोड़ आदमी था। और कभी-कभी हंसने वाले लोग गहरी बातें कह जाते हैं जो कि रोने वाले लाख रोयें तो नहीं कह पाते। उदास लोगों से सत्यों का जन्म नहीं होता। उदास लोगों से बीमारियां पैदा होती हैं। मार्क ट्वैन ने कहा है, कि जब कोई किताब मेरे पास आलोचना के लिए, क्रिटिसिज्म के लिए भेजता है, तो मैं पहले किताब पढ़ता नहीं, पहले आलोचना लिखता हूं। क्योंकि किताब पढ़ने से आदमी अगर प्रभावित हो जाये तो पक्षपात हो जाता है। पहले आलोचना लिख देता हूं, फिर मजे से किताब पढ़ता हूं। उसने सलाह दी कि आलोचक को कभी भी आलोचना 495 Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.340026
Book TitleMahavir Vani Lecture 26 Vinay Shishya ka Lakshan Hai
Original Sutra AuthorN/A
AuthorOsho Rajnish
PublisherOsho Rajnish
Publication Year
Total Pages1
LanguageHindi
ClassificationAudio_File, Article, & Osho_Rajnish_Mahavir_Vani_MP3_and_PDF_Files
File Size97 MB
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