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________________ पहले एक प्रश्न। __एक मित्र ने पूछा है कि रस परित्याग का क्या अर्थ है। क्या रस परित्याग का यही अर्थ है कि कोई भी इंद्रियजनित कंपन से ध्यान न जुड़े। फिर तो रस त्यागी को आंख, कान वगैरह बंद करके ही चलना उचित होगा। अंधे, बहरे, गूंगे सर्वश्रेष्ठ त्यागी सिद्ध होंगे। क्या यही महावीर और आपका खयाल है? ___ रस परित्याग का अर्थ अंधापन, बहरापन नहीं है, लेकिन बहुत लोगों ने वैसा अर्थ लिया है। ध्यान को इंद्रियों से तोड़ना तो कठिन, इंद्रियों को तोड़ देना बहुत आसान है। आंख जो देखती है, उससे रस को छोड़ना तो कठिन, आंख को फोड़ देना बहुत कठिन नहीं है। किन्हीं ने तो आंखें फोड़ ही ली हैं वस्तुतः। किन्हीं ने धुंधली कर ली हैं। आंख बंद करके चलने से कुछ भी न होगा, क्योंकि आंख बंद करने की जो वृत्ति पैदा हो रही है वह जिस भय से पैदा हो रही है। वह भय त्याग नहीं है। ___ और मन के नियम बहुत अदभुत हैं। जिससे हम भयभीत होते हैं, उससे हम बहुत गहरे में प्रभावित भी होते हैं। अगर मैं सौंदर्य बंद कर लूं तो वह भी सौंदर्य से प्रभावित होना है। उससे यह पता नहीं चलता कि मैं सौंदर्य की जो वासना थी, उससे मुक्त हो गया। उससे इतना ही पता चलता है कि सौंदर्य की वासना भरपर है, और मैं इतना भयभीत हं अपनी वासना से कि भय के कारण मैंने आंख बंद कर ली हैं। लेकिन जिस भय से आंख बंद की है, वह आंख के भीतर चलता रहेगा। आवश्यक नहीं है कि हम बाहर ही देखें, तभी रूप दिखायी पड़े। - अगर रस भीतर मौजूद है तो रस भीतर भी रूप को निर्मित कर लेता है। स्वप्न निर्मित हो जाते हैं, कल्पना निर्मित हो जाती है। और बाहर तो जगत इतना सुंदर कभी भी नहीं है जितना हम भीतर निर्मित कर सकते हैं। जो स्वप्न का जगत है, वह हमारे हाथ में है। अगर रस मौजूद हो और आंख फोड़ डाली जाये तो हम सपने देखने लगेंगे, और सपने बाहर के संसार से ज्यादा प्रीतिकर हैं। क्योंकि बाहर का संसार तो बाधा भी डालता है। सपने हमारे हाथ का खेल है। हम जितना सुंदर बना सकें, बना लें। और हम जितनी देर उन्हें टिकाना चाहें, टिका लें। फिर वे सपने की प्रतिमाएं किसी तरह का अवरोध भी उपस्थित नहीं करतीं। बहुत लोग संसार से भयभीत होकर स्वप्न के संसार में प्रविष्ट हो जाते हैं। जिनको स्वप्न के संसार में प्रविष्ट होना हो, उन्हें आंखें बंद कर लेना बड़ा सहयोगी होगा, क्योंकि खुली आंख सपना देखना बड़ा मुश्किल है। लेकिन इससे रस विलीन न होगा, रस और प्रगाढ़ होकर प्रगट होगा। 443 For Private & Personal Use Only Jain Education International www.jainelibrary.org
SR No.340024
Book TitleMahavir Vani Lecture 24 Sangraha Andar ke Lobh ki Zalak
Original Sutra AuthorN/A
AuthorOsho Rajnish
PublisherOsho Rajnish
Publication Year
Total Pages1
LanguageHindi
ClassificationAudio_File, Article, & Osho_Rajnish_Mahavir_Vani_MP3_and_PDF_Files
File Size73 MB
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