________________ ब्रह्मचर्य-सूत्र : 2 सद्दे रूवे य गंधे य, रसे फासे तहेव य / पंचविहे कामगुणे, निच्चसो परिवज्जए।। कामाणुगिद्धिप्पभवं खु दुक्खं, सव्वस्स लोगस्स सदेवगस्स / जे काइयं माणसियं च किंचि, तस्सऽन्तगं गच्छइ वीयरागो।। देवदाणव गंधव्वा जक्खरक्खसकिन्नरा / बंभयारि नमंसन्ति टुक्करं जे करेन्ति तं।। एस धम्मे धुवे निच्चे, सासए जिणदेसिए / सिद्धासिज्झन्ति चाणेण, सिज्झिस्सन्तितहाऽवरे।। शब्द, रूप गंध, रस और स्पर्श इन पांच प्रकार के काम गुणों को भिक्षु सदा के लिए त्याग दें। देवलोक सहित समस्त संसार के शारीरिक तथा मानसिक सभी प्रकार के दुख का मूल काम-भोगों की वासना ही है। जो साधक इस संबंध में वीतराग हो जाता है, वह शारीरिक तथा मानसिक सभी प्रकार के दुखों से छूट जाता है। जो मनुष्य इस प्रकार दुष्कर ब्रह्मचर्य का पालन करता है, उसे, देव, दानव, गंधर्व, यक्ष, राक्षस और किन्नर आदि सभी नमस्कार करते हैं। यह ब्रह्मचर्य धर्म ध्रुव है,नित्य है, शाश्वत है और जिन्नोपदिष्ट है। इसके द्वारा पूर्वकाल में कितने ही जीव सिद्ध हो गये हैं, वर्तमान में हो रहे हैं, और भविष्य में होंगे। 422 Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org