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________________ कायोत्सर्ग : शरीर से विदा लेने की क्षमता है यह शरीर मेरा है। लेकिन जहां तक मेरा है वहां तक महावीर के कायोत्सर्ग की जो आंतरिक नाड़ी है, उस पर आपका हाथ नहीं है। महावीर कहते हैं—यह जानना कि शरीर मेरा नहीं है-कायोत्सर्ग है—यह जानना मात्र। यह जानना बहत कठिन है।। __ इस कठिनाई से बचने के लिए आस्तिकों ने एक उपाय निकाला है कि वह कहते हैं कि शरीर मेरा नहीं है, लेकिन परमात्मा का है। महावीर के लिए तो वह भी उपाय नहीं, क्योंकि परमात्मा की कोई जगह नहीं है उनकी धारणा में। यह बहुत चक्करदार बात है। आस्तिक, तथाकथित आस्तिक कहता है कि शरीर मेरा नहीं परमात्मा का है, और परमात्मा मेरा है। ऐसे घूम-फिर कर सब अपना ही हो जाता है। महावीर के लिए परमात्मा भी नहीं है। महावीर की धारणा बहुत अदभुत है और शायद महावीर के अतिरिक्त किसी व्यक्ति ने कभी प्रतिपादित नहीं की। महावीर कहते हैं-तुम तुम्हारे हो, शरीर शरीर का है। इसको समझ लें। शरीर परमात्मा का भी नहीं है, शरीर शरीर का है। महावीर कहते हैं-प्रत्येक वस्तु अपनी है, अपने स्वभाव की है, किसी की नहीं है। मालकियत झूठ है इस जगत में। वह परमात्मा की भी मालकियत हो तो झूठ है। ओनरशिप झूठ है। शरीर शरीर का है। इसका अगर हम विश्लेषण करें तो बात पूरी खयाल में आ जाएगी। र में आप प्रतिपल श्वास ले रहे हैं। जो श्वास एक क्षण पहले आपकी थी, एक क्षण बाद बाहर हो गयी, किसी और की हो गयी होगी। जो श्वास अभी आपकी है, आपको पक्का है आपकी है? क्षणभर पहले आपके पड़ोसी की थी। और अगर हम श्वास से पूछ सकें कि तू किसकी है, तो श्वास क्या कहेगी? श्वास कहेगी-मैं मेरी हूं। इस मेरे शरीर में—जिसे हम कहते हैं मेरा शरीर-इस मेरे शरीर में मिट्टी के कण हैं। कल वे जमीन में थे, कभी वे किसी और के शरीर में रहे होंगे। कभी किसी वृक्ष में रहे होंगे, कभी किसी फल में रहे होंगे। न मालूम कितनी उनकी यात्रा है। अगर हम उन कणों से पूछे कि तुम किसके हो, तो वे कहेंगे-हम अपने हैं। हम यात्रा करते हैं। तुम सिर्फ स्टेशन हो, जिनसे हम गुजरते हैं। हम बहुत स्टेशनों से गुजरते हैं। जब हम कहते हैं—शरीर मेरा है तो हम वैसी ही भल करते हैं कि आप स्टेशन से उतरें और स्टेशन कहे कि यह आदमी मेरा है। आप कहेंगे-तझसे क्या लेना-देना है, हम बहत स्टेशन से गुजर गए और गुजरते रहेंगे। स्टेशनें आती हैं और चली जाती हैं। शरीर जिन भतों से मिल कर बना है, प्रत्येक भत उसी भत का है। शरीर जिन पदार्थों से बना है. प्रत्येक पदार्थ उसी पदार्थ का है। मेरे भीतर जो आकाश है वह आकाश का है; मेरे भीतर जो वायु है वह वायु की है; मेरे भीतर जो पृथ्वी है, वह पृथ्वी की है; मेरे भीतर जो अग्नि है वह अग्नि की है; मेरे भीतर जो जल है वह जल का है। यह कायोत्सर्ग है—यह जानना। और मेरे भीतर जल न रह जाए, वायु न रह जाए, आकाश न रह जाए, पृथ्वी न रह जाए, अग्नि न रह जाए, तब जो शेष रह जाता है वही मैं हं। तब जो छठवां शेष रह जाता है, जो अतिरिक्त शेष रह जाता है वही मैं हूं। फिर क्या शेष रह जाता है? अगर वायु भी मैं नहीं हूं, अग्नि भी नहीं हूं, आकाश भी नहीं, जल भी नहीं, पृथ्वी भी नहीं; फिर मेरे भीतर शेष क्या रह जाता है? तो महावीर कहते हैं—सिर्फ जानने की क्षमता शेष रह जाती है, दी कैपेसिटी टु नो। सिर्फ जानना शेष रह जाता है। नोइंग शेष रह जाता है। ___ तो महावीर कहते हैं-मैं तो सिर्फ जानता हूं, जानना मात्र / इस स्थिति को महावीर ने केवलज्ञान कहा है-जस्ट नोइंग, सिर्फ जानना मात्र। मैं सिर्फ ज्ञाता ही रह जाता हूं, द्रष्टा ही रह जाता हूं, दृष्टि रह जाता हूं, ज्ञान रह जाता हूं। अस्तित्व का बोध, अवेयरनेस रह जाता हूं। और तो सब खो जाता है। कायोत्सर्ग का अर्थ है-जो जिसका है वह उसका है, ऐसा जानना। अनाधिकृत मालकियत न करना / लेकिन हम सब अनाधिकृत मालकियत किए हुए हैं और जब हम भीतर अनाधिकृत मालकियत करते हैं तो हम बाहर भी करते हैं। जो आदमी अपने शरीर को मानता है कि मेरा है, वह अपने मकान को कैसे मानेगा कि मेरा नहीं है। पश्चिम में इस समय एक बहुत कीमती विचारक है-मार्शल मैकलहान! वह कहता है-मकान हमारे शरीर का ही विस्तार है. 335 Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org |
SR No.340018
Book TitleMahavir Vani Lecture 18 Kayotsarga Sharir se Vida Lene ki Kshamta
Original Sutra AuthorN/A
AuthorOsho Rajnish
PublisherOsho Rajnish
Publication Year
Total Pages1
LanguageHindi
ClassificationAudio_File, Article, & Osho_Rajnish_Mahavir_Vani_MP3_and_PDF_Files
File Size77 MB
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