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________________ महावीर-वाणी भाग : 1 जब मेरा सब पुराना कट जाए; मैं शून्यवत हो जाऊं; कोई जोड़ मेरे हिसाब में न रहे; मेरे खाते में दोनों तरफ बराबर हो जाएं आंकड़े; जो मैंने किया वह सब अनकिया हो जाए: जो मैंने लिया वह सब दिया हो जाए; ऋण और धन बराबर हो जाएं और मेरे हाथ में शून्य बच रहे तो महावीर कहते हैं-वह शून्य अवस्था ही मुक्ति है। अगर ईसाइयत की धारणा हम समझें तो सेवा शून्य में नहीं ले जाती, धन में ले जाती है, प्लस में। आपका प्लस बढ़ता चला जाता है, आपका धन बढ़ता चला जाता है। आप जितनी सेवा करते हैं उतने धनी होते चले जाते हैं। उतना आपके पास पूण्य संग्रहीत होता है। और इस पुण्य का प्रतिफल आपको स्वर्ग में, मुक्ति में, ईश्वर के द्वारा मिलेगा। जितना आप पाप करते हैं, आपके पास ऋण इकट्ठा होता है और इसका प्रतिफल आपको नरक में, दुख में, पीड़ा में मिलेगा। महावीर कहते हैं—मोक्ष तो तब तक नहीं हो सकता जब तक ऋण या धन कोई भी ज्यादा है। जब दोनों बराबर हैं और शून्य हो गए, एक दूसरे को काट गए, तभी आदमी मुक्त होता है, क्योंकि मुक्ति का अर्थ ही यही है कि अब न मुझे कुछ लेना है और न मुझे कुछ देना है। इसको महावीर ने निर्जरा कहा है। __ और निर्जरा के सूत्रों में वैयावृत्य बहुत कीमती है। तो महावीर इसलिए नहीं कहते कि दया करके सेवा करो क्योंकि दया ही बंधन बनेगा। कुछ भी किया हुआ बंधन बनता है। महावीर यह नहीं कहते कि करुणा करके सेवा करो कि देखो यह आदमी कितना दुखी है, इसकी सेवा करो। महावीर यह नहीं कहते कि यह इतना दुखी है इसलिए सेवा करो। महावीर कहते हैं कि अगर तुम्हारा कोई पिछला कर्म तुम्हारा पीछा कर रहा हो तो सेवा करो और छुटकारा पा लो। इसका मतलब? इसका मतलब यह हुआ कि तुम अपने को सेवा के लिए खुला रखो, पैशोनेट सेवा नहीं। निकलो मत झंडा लेकर सुबह से कि मैं सेवा करके लौटूंगा, ऐसा नहीं। घोषणा करके मत तय कर रखो कि सेवा करनी ही है। जिद्द मत करो, राह चलते हो, कोई अवसर आ जाए तो खुला रखो। अगर सेवा हो सकती हो तो अपने को रोको मत। ___ इसमें फर्क है। एक तो सेवा करने जाओ प्रयोजन से, सक्रिय हो जाओ, सेवक बनो, धर्म समझो सेवा को। महावीर कहते हैं-खुला रखो, कहीं सेवा का अवसर हो, और सेवा भीतर उठती हो तो रोको मत, हो जाने दो। और चुपचाप विदा हो जाओ। पता भी न चले किसी को कि तुमने सेवा की। तुमको स्वयं भी पता न चले कि तुमने सेवा की, तो वैयावृत्य है। वैयावृत्य का अर्थ है-उत्तम सेवा। साधारण सेवा नहीं। ऐसी सेवा जिसमें पता भी नहीं चलता कि मैंने कुछ किया। ऐसी सेवा जिसमें बोध है कि मैंने कुछ किया हआ अनकिया, अनडन, कुछ था जो बांधे था, उसे मैंने छोड़ा। इस आदमी से कोई संबंध थे जो मैंने तोड़े। लेकिन अगर इसमें रस ले लिया तो फिर संबंध निर्मित होते हैं—फिर संबंध निर्मित होते हैं। और रस एक तरह का शोषण है-यह भी समझ लेना चाहिए—महावीर की दृष्टि में अगर एक आदमी दुखी है और पीड़ित है और मैं उसकी सेवा करके स्वर्ग जाने की चेष्टा कर रहा हूं तो मैं उसके दुख का शोषण कर रहा हूं। मैं उसके दुख को साधन बना रहा हूं। अगर वह दुखी न होता तो मैं स्वर्ग न जा पाता। इसे ऐसा सोचें थोड़ा। तब इसका मतलब यह हुआ कि जिसके दुख के माध्यम से आप स्वर्ग खोज रहे हैं, यह तो बहुत मजेदार मामला है। इस गणित में थोड़े गहरे उतरना जरूरी है। ___ एक आदमी दुखी है और आप सेवा करके अपना सुख खोज रहे हैं, तो आप उसके दुख को साधन बना रहे हैं। यही तो सारी दुनिया कर रही है। यह तो सारी दुनिया कर रही है। एक धनपति अगर धन चूस रहा है तो आप उससे कहते हैं कि दूसरे लोग दुखी हो रहे हैं। आप उनके दुख पर सुख इकट्ठा कर रहे हैं। लेकिन एक पुण्यात्मा, दीन की, दुखी की सेवा कर रहा है और अपना स्वर्ग खोज रहा है, तब आपको खयाल नहीं आता कि वह भी किसी गहरे अर्थों में यही कर रहा है। सिक्के अलग हैं, इस जमीन के नहीं—परलोक के, पण्य के। बैंक बैलेंस वह यहां नहीं खोल पाएगा, लेकिन कहीं खोल रहा है। कहीं किसी बैंक में जमा होता चला जाएगा। 296 Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.340016
Book TitleMahavir Vani Lecture 16 Vaiyavruttya aur Swadhyay
Original Sutra AuthorN/A
AuthorOsho Rajnish
PublisherOsho Rajnish
Publication Year
Total Pages1
LanguageHindi
ClassificationAudio_File, Article, & Osho_Rajnish_Mahavir_Vani_MP3_and_PDF_Files
File Size79 MB
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