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________________ महावीर-वाणी भाग : 1 कि दुख नहीं है तो छाती पीटकर रो सकता है। भीतर अन्यथा भी हो सकता है। कितनी ही गलत चीज में अगर रस आ जाए तो उसकी पुनरुक्ति शुरू हो जाती है। गलत से गलत चीज में शुरू हो जाती है, तो सही चीज में तो कोई कठिनाई नहीं है। __ पर यह जोड़ कब पैदा होता है? यह लिंक कब बनती है? यह लिंक, यह जोड़, यह संबंध तब बनता है जब व्यक्ति अपने मन से अपने को दूर नहीं पाता, एक पाता है। वही उसके जुड़ने का ढंग है, जब हम पाते हैं कि मैं मन हूं। अब आपको क्रोध आता है और आप कहते हैं कि मैं क्रोधी हो गया, तो आपको पता नहीं, आप मन के साथ जोड़ बना रहे हैं। जब आपके जीवन में दुख आता है और आप कहते हैं-मैं दुखी हो गया, तो आपको पता नहीं, आप मन के साथ अपने को एक समझने की भ्रांति में पड़ रहे हैं। जब सुख आता है तो आप कहते हैं-मैं सुखी हो गया, तब आप फिर मन के साथ तादात्म्य कर रहे हैं। ' अगर रस-परित्याग साधना है तो जब क्रोध आए तब कहना कि क्रोध आया, ऐसा मैं देखता हूं-ऐसा नहीं कि क्रोध मुझे आ ही नहीं रहा है-तब आप फिर संबंधित हो गए। ध्यान रहे अगर आपने कहा- नहीं, क्रोध मुझे आ ही नहीं रहा, और क्रोध आ रहा है तो आप क्रोध से संबंधित हों या अक्रोध से संबंधित हों, दोनों हालत में रस-परित्याग नहीं होगा। जब क्रोध आए तब रस-परित्याग की साधना करने वाला व्यक्ति कहेगा, क्रोध आ रहा है, क्रोध जल रहा है, लेकिन में देख रहा हूं। और सच यही है कि आप देखते हैं, आप कभी क्रोधी होते नहीं। वह भ्रांति है कि आप क्रोधी होते हैं। आप सदा देखनेवाले बने रहते हैं। जब पेट में भूख लगती है तब आप भूखे नहीं हो जाते, आप सिर्फ जाननेवाले होते हैं कि भूख लगी है। जब पैर में कांटा गड़ता है तो आप दर्द नहीं हो जाते, तब आप जानते हैं कि पैर में दर्द हो रहा है, ऐसा मैं जानता हूं। नने का बोध आपका प्रगाढ नहीं है, बहत फीका है। वह इतना फीका है कि जब पैर का कांटा जोर से चभता है तो भूल जाता है उस बोध को प्रगाढ़ करने का नाम रस-परित्याग है। वह बोध जितना प्रगाढ़ होता जाए, तब जीभ आपकी कहेगी - बहुत स्वादिष्ट है। आप कहेंगे कि ठीक है, जीभ कहती है कि स्वादिष्ट है-ऐसा मैं सुनता हूं, ऐसा मैं देखता हूं, ऐसा मैं समझता हूं, लेकिन मैं अलग हूं। रसानुभव के बीच में साक्षी हूं। कोई सम्मान कर रहा है, फूल मालाएं डाल रहा है, तब आप जानते हैं कि फल मालाएं डाली जा रही हैं. कोई सम्मान कर रहा है, मैं देख रहा है। कोई पत्थर मार रहा है, कोई गालियां दे रहा है, तब आप जानते हैं कि गालियां दी जा रही हैं, पत्थर मारे जा रहे हैं, मैं देख रहा है। और एक बार इस द्रष्टा के साथ संबंध बन जाए और इस मन के संबंध शिथिल हो जाएं तो आप पाएंगे, सब रस खो गए। न वस्तुएं छोड़नी पड़तीं, न आंखें फोड़नी पड़तीं, न तथाकथित आरोपण अपने ऊपर करना पड़ता, लेकिन रस खो जाते हैं। और जब रस खो जाते हैं तो वस्तुएं अपने आप छूट जाती हैं। और जब रस खो जाते हैं तो इंद्रियां अपने आप शांत हो जाती हैं। और जब रस खो जाते हैं तो मन पुनरुक्ति की मांग बन्द कर देता है। क्योंकि वह करता ही इसलिए था कि रस मिलता था। अब जब मालिक को ही रस नहीं मिलता तो बात समाप्त हो गयी। मन हमारा नौकर है, छाया की तरह हमारे पीछे चलता है। हम जो कहते हैं वह मन दोहरा देता है। मन जो दोहराता है इंद्रियां वही मांगने लगती हैं। इंद्रिया जो मांगने लगती हैं, हम उन्हीं के पदार्थों को इकट्ठा करने में जुट जाते हैं। ऐसा चक्कर है। इसे आप पहले केंद्र से ही तोड़ें। फिर भी महावीर इसे कहते हैं, यह बाह्य-तप है। यह बड़े मजे की बात है। इसे तोड़ना पड़ेगा भीतर, लेकिन फिर भी यह बाह्य-तप है। क्योंकि जिससे आप तोड़ रहे हैं वह बाहर की ही चीज है, फिर भी बाहर की चीज है। अगर मैं साक्षी हो रहा हूं तो भी तो बाहर का हो रहा हूं, वस्तु का ही हो रहा हूं, इंद्रियों का हो रहा हूं, मन का हो रहा हूं। वे सब पराए हैं, वे सब बाहर हैं। 220 Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.340012
Book TitleMahavir Vani Lecture 12 Ras Parityag aur Kaya Klesh
Original Sutra AuthorN/A
AuthorOsho Rajnish
PublisherOsho Rajnish
Publication Year
Total Pages1
LanguageHindi
ClassificationAudio_File, Article, & Osho_Rajnish_Mahavir_Vani_MP3_and_PDF_Files
File Size77 MB
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