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________________ महावीर-वाणी भाग : 1 गये, वे मंगल हैं। सिद्ध मंगल हैं, साधु मंगल हैं, और जाना जिन्होंने - जैन परंपरा केवली उन्हें कहती है जो जानने की दिशा में उस जगह पहंच गये जहां जाननेवाला भी नहीं रह जाता. जानी जानेवाली वस्त भी नहीं रह जाती. सिर्फ जानना रह जाता है. सिर्फ केवल ज्ञान मात्र रह जाता है- औनली नोइंग। केवली, जैन परंपरा उसे कहती है जो केवल ज्ञान को उपलब्ध हो गया। मात्र ज्ञान रह गया है जहां। जहां कोई जाननेवाला न बचा, जहां मैं का कोई भाव न बचा, जहां कोई ज्ञेय न बचा, जहां कोई तू न बचा। जहां सिर्फ जानने की शुद्ध क्षमता, प्योर कैपेसिटी टु नो। ___ इसे ऐसा समझें कि हम एक कमरे में दीया जलाएं। दीये की बाती है, तेल है, दीया है। फिर कमरे में दीये का प्रकाश है और उस प्रकाश से प्रकाशित होती चीजें हैं-कुर्सी है, फर्नीचर है, दीवार है, आप हैं। अगर हम ऐसी कल्पना कर सकें कि कमरा शून्य हो गया-न दीवार है. न फर्नीचर है. कछ भी नहीं है। दीये में तेल भी न रहा, दीये की देह भी न रही - सिर्फ ज्योति रह गयी, प्रकाश मात्र रह गया, न कोई दीया बचा और न प्रकाशित वस्तुएं बची- मात्र प्रकाश रह गया। आलोक , स्रोतरहित, कोई तेल नहीं, कोई बाती नहीं। और ऐसा आलोक जो किसी पर नहीं पड़ रहा है, शून्य में फैल रहा है। ऐसी धारणा है जैन चिंतन की केवली के संबंध में। जो परम ज्ञान को उपलब्ध होता है वहां ज्ञान अकारण हो जाता है, कोई सोर्स नहीं होता। क्योंकि बात बहत कीमती है। जैन परंपरा कहती है कि जिस चीज का भी सोर्स होता है वह कभी न कभी चुक जाती है। चुक ही जाएगी। कितना ही बड़ा स्रोत क्यों न हो। सूर्य भी चुक जाएगा एक दिन - बड़ा है स्रोत, अरबों वर्षों से रोशनी दे रहा है। वैज्ञानिक कहते हैं - अभी और अन्दाजन चार हजार, पांच हजार साल रोशनी देगा, लेकिन चुक जाएगा। कितना ही बड़ा स्रोत हो, स्रोत की सीमा है-चुक जाएगा। महावीर कहते हैं-यह जो चेतना है, यह अनंत है, यह कभी चुक नहीं सकती। यह स्रोतरहित है इसमें जो प्रकाश है वह किसी मार्ग से नहीं आता, वह बस 'है'- इट जस्ट इज़। कहीं से आता नहीं, अन्यथा एक दिन चुक जाएगा। कितना ही बड़ा हो, चुक जाएगा। महासागर भी चम्मचों से उलीचकर चुकाए जा सकते हैं-कितना ही लंबा समय लगे। महासागर भी चम्मचों से उलीचकर चुकाए जा सकते हैं। एक चम्मच थोड़ा तो कम कर ही जाती है। फिर और ज्यादा कम होता जाएगा। महावीर कहते हैं - यह जो चेतना है, यह स्रोतरहित है। इसलिए महावीर ने ईश्वर को मानने से इनकार कर दिया। क्योंकि अगर ईश्वर को मानें तो ईश्वर स्रोत हो जाता है। और हम सब उसी के स्रोत से जलने वाले दीये हो जाते हैं तो हम चुक जाएंगे। सच यह है कि महावीर से ज्यादा प्रतिष्ठा आत्मा को इस पृथ्वी पर और किसी व्यक्ति ने कभी नहीं दी है। इतनी प्रतिष्ठा कि उन्होंने कहा कि परमात्मा अलग नहीं, आत्मा ही परमात्मा है। इसका स्रोत अलग नहीं है, यह ज्योति ही स्वयं स्रोत है। यह जो भीतर जलने वाला जीवन है, यह कहीं से शक्ति नहीं पाता यह स्वयं ही शक्तिवान है। यह किसी के द्वारा निर्मित नहीं है, नहीं तो किसी के द्वारा नष्ट हो जाएगा। यह किसी पर निर्भर नहीं है, नहीं तो मोहताज रहेगा। यह किसी से कुछ भी नहीं पाता, यह स्वयं में समर्थ और सिद्ध है। जिस दिन ज्ञान इस सीमा पर पहुंचता है, जहां हम स्रोतरहित प्रकाश को उपलब्ध होते हैं, सोर्सलेस - उसी दिन हम मूल को उपलब्ध होते हैं। जैन परंपरा ऐसे व्यक्ति को केवली कहती है। वह व्यक्ति कहीं भी पैदा हो -वे क्राइस्ट हो सकते हैं, वे बुद्ध हो सकते हैं, वे कृष्ण हो सकते हैं, वे लाओत्से हो सकते हैं। इसलिए इस सूत्र में यह नहीं कहा गया -- महावीर मंगलं, कृष्ण मंगलं - ऐसा नहीं कहा / 'जैन धर्म मंगल है', ऐसा नहीं कहा। 'हिन्दू धर्म मंगल है', ऐसा नहीं कहा। 'केवली पनत्तो धम्मो मंगलं' - वे जो केवल-ज्ञान को उपलब्ध हो गये, उनके द्वारा जो भी प्ररूपित धर्म है, वह मंगल है। वह कहीं भी हो, जिन्होंने भी शुद्ध ज्ञान को पा लिया, उन्होंने जो कहा है, वह मंगल है। यह मंगल की धारणा गहन प्राणों के अतल में बैठ जाए तो अमंगल की संभावना कम होती चली जाती है। जैसी जो भावना करता 24 Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.340002
Book TitleMahavir Vani Lecture 02 Mangal va Lokottam ki Bhavna
Original Sutra AuthorN/A
AuthorOsho Rajnish
PublisherOsho Rajnish
Publication Year
Total Pages1
LanguageHindi
ClassificationAudio_File, Article, & Osho_Rajnish_Mahavir_Vani_MP3_and_PDF_Files
File Size92 MB
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