________________ महावीर-वाणी भाग : 1 है। तो धर्म का यहां अर्थ है, स्वभाव। अपने स्वभाव में चले जाना धार्मिक हो जाना है, और अपने स्वभाव के बाहर भटकते रहना अधार्मिक बने रहना है। लोक में इन चारों को उत्तम भी इस सूत्र में कहा है। अरिहंत उत्तम हैं लोक में, सिद्ध उत्तम हैं लोक में, साधु उत्तम हैं लोक में, केवली प्ररूपित धर्म उत्तम है लोक में। मंगल कह देने के बाद उत्तम कहने की क्या जरूरत है? कारण है हमारे भीतर। ये सारे सूत्र हमारे मनस के ऊपर आधारित हैं। यह हमारे मन की गहराइयों के अध्ययन पर आधारित है। मंगल कहने के बाद भी हम इतने नासमझ हैं कि जो उत्तम नहीं है उसे भी हम मंगलरूप मान सकते हैं। हमारी वासनाएं ऐसी हैं कि जो निकृष्ट है लोक में उसी की तरफ बहती हैं। ऐसा भी कह सकते हैं कि वासना का अर्थ ही यही होता है— नीचे की तरफ बहाव। जो निकृष्ट है उसी की तरफ। रामकृष्ण कहा करते थे कि चील आकाश में भी उड़े तो तुम यह मत समझना कि उसका ध्यान आकाश में होता है। वह आकाश में उड़ती है, लेकिन उसकी नजर नीचे, कहीं कूड़े-कबाड़ पर, किसी कचरेघर पर पड़े हुए मांस पर, किसी सड़ी मछली पर, उस पर लगी रहती है। उडती आकाश में है और उसकी दष्टि तो नीचे कहीं किसी मांस के टकडे पर लगी रहती है। तो रामकष्ण कहते थेभूल में मत पड़ जाना कि चील आकाश में उड़ रही है इसलिए आकाश में ध्यान होगा। ध्यान तो उसका नीचे लगा रहता है। ___ इसलिए दूसरे सूत्र में महावीर का यह जो मंगल सूत्र है, यह तत्काल जोड़ता है-'अरिहंत लोगुत्तमा!' अरिहंत उत्तम हैं। यह सिर्फ इशारे के लिए है। 'सिद्ध उत्तम हैं, साधु उत्तम हैं। ' उत्तम का अर्थ है कि शिखर हैं जीवन के-- श्रेष्ठ हैं, पाने योग्य हैं, चाहने योग्य हैं, होने योग्य हैं। __ किसी ने पूछा है श्वीत्ज़र को- क्या है पाने योग्य? क्या है आनंद? तो श्वीत्ज़र ने कहा—'टु बी मोर एंड मोर, टु बी डीप एंड डीप, टु बी इन एंड इन, एंड कांस्टेंटली टर्निंग इन टु समथिंग मोर एंड मोर / ' कुछ ज्यादा में रूपांतरित होते रहना, कुछ श्रेष्ठ में बदलते रहना, कुछ गहरे और गहरे जाते रहना, कुछ ज्यादा और ज्यादा होते रहना / लेकिन हम ज्यादा तभी हो सकते हैं जब ज्यादा की. श्रेष्ठ की. उत्तम की धारणा हमारे निकट हो। शिखर दिखाई पडता हो तो यात्रा भी हो सकती है। शिखर ही न दिखाई पड़ता हो तो यात्रा का कोई सवाल नहीं। भौतिकवाद कहता है- कोई आत्मा नहीं है। शिखर को तोड़ देता है। और जब कोई आत्मा नहीं है, ऐसा कोई मान लेता है- तो आत्मा को पाना है, इसका तो कोई सवाल ही नहीं रह जाता। फ्रायड यदि कह देता है कि आदमी वासना के अतिरिक्त और कुछ भी नहीं है- तो आदमी तो वासना है ही - वह तत्काल मान लेता है। फिर वह कहता है जब वासना के अतिरिक्त कुछ है ही नहीं तब बात खत्म हो गयी, बात समाप्त हो गयी। ___ एक व्यक्ति कह रहा था किसी को कि मैं बहुत परेशान था, क्योंकि मेरी कांशियेंस मुझे बहुत पीड़ा देती थी, मेरा अंतःकरण बहुत पीड़ा देता था- झूठ बोलूं तो, चोरी करूं तो, किसी स्त्री की तरफ देखू तो-बड़ी पीड़ा होती थी। तो फिर मैं मनोचिकित्सक के पास गया। और मैंने इलाज करवाया और दो साल में मैं बिलकुल ठीक हो गया। ___ तो उसके मित्र ने पूछा- क्या अब चोरी का भाव नहीं उठता? स्त्री को देखकर वासना नहीं जगती? सुंदर को देखकर पाने का भाव पैदा नहीं होता? उसने कहा - नहीं-नहीं, तुम मुझे गलत समझे। दो साल में मनोचिकित्सक ने मुझे मेरी कांशियेस से छुटकारा दिला दिया। अब पीड़ा नहीं होती, अब चिंता नहीं होती, अब अपराध अनुभव नहीं करता हूं। पिछले पचास सालों में पश्चिम का मनोचिकित्सक लोगों को अपराध से मुक्त नहीं करवा रहा है, अपराध के भाव से मुक्त करवा 28 Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org