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10 जनवरी 2011
जिनवाणी
समय उपर्युक्त दोषों को नहीं लगने देने का ध्यान रखे ।
उत्पादन के 16 दोष:
निम्नलिखित सोलह दोष साधु के द्वारा लगाये जाते हैं। ये दोष निशीथ सूत्र के 13 वें उद्देशक में लिखे हैं, और कुछ अन्यत्र भी कहीं-कहीं मिलते हैं।
1. धात्री कर्म - बच्चे की सार सँभाल करके आहार प्राप्त करना ।
2. दूति कर्म - एक का सन्देश दूसरे को पहुँचा कर आहार लेना ।
3. निमित्त - भूत, भविष्य और वर्तमान के शुभाशुभ निमित्त बताकर आहार लेना ।
4. आजीव - अपनी जाति अथवा कुल आदि बताकर लेना ।
5. वनीपक- दीनता प्रकट करके लेना ।
6. चिकित्सा - औषधि देकर अथवा बताकर लेना ।
7. क्रोध- क्रोध कर अथवा शाप का भय दिखाकर लेना ! 8. मान अभिमान पूर्वक अपना प्रभाव बताकर लेना । 9. माया- कपट का सेवन अथवा वंचना करके लेना ।
10. लोभ- लोलुपता से अच्छी वस्तु अधिक लेना ।
11. पूर्व-पश्चात् संस्तव आहार लेने के पूर्व एवं बाद में दाता की प्रशंसा करना ।
12. विद्या- चमत्कारिक विद्या का प्रयोग अथवा विद्यादेवी की साधना के प्रयोग से वस्तु प्राप्त करना ।
13. मन्त्र - मंत्र प्रयोग से आश्चर्य उत्पन्न करके लेना ।
14. चूर्ण- चमत्कारिक चूर्ण का प्रयोग करके लेना ।
15. योग- योग का चमत्कार अथवा सिद्धियां बताकर लेना ।
16. मलकर्म- गर्भ स्तंभन, गर्भाधान, गर्भपात जैसी पापकारी औषधि बताकर लेना । (प्र.व्या. 1.2
तथा 2.1)
ये सोलह दोष साधु से लगते हैं। ऐसे दोषों के सेवन करने वाले का संयम सुरक्षित नहीं रहता । सुसाधु इन दोषों से दूर ही रहते हैं । उद्गम और उत्पादन के कुल बत्तीस दोषों का समावेश 'गवेषणा' में होता है।
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(2) ग्रहणैषणा- ग्रहणैषणा का अर्थ निर्दोष आहारादि ग्रहण करना है। इसके अन्तर्गत साधक को अपने जीवन-निर्वाह हेतु आवश्यक वस्त्र, पात्र, शय्या एवं आहार- पानी को ग्रहण करते हुए यतना एवं अहिंसा का विवेक रखना होता है। निम्नांकित दस दोष साधु और गृहस्थ दोनों में लगते हैं- ये 'ग्रहणैषणा' के दोष हैं। इन दोषों को टालकर साधु वस्तु ग्रहण करें।
1. शंकित - दोष की शंका होने पर लेना (दशवै. 5.1.44, आचा. 2.10.2)
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