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जिनवाणी
10 जनवरी 2011 आधार भी आवश्यक होता है। क्योंकि साधु को चलना, बोलना, आहार लेना, उपकरण आदि रखना और मलमूत्र त्याग आदि आवश्यक क्रियाएँ करनी ही पड़ती हैं। अतः इन क्रियाओं को संयम पूर्वक करना समिति है । पाँच समितियों का विधान आगमों में अनेक स्थलों पर किया गया है ।
रिया भासणादाणे, उच्चारे समिई इय। - उत्तराध्ययन सूत्र 24.2
अट्ट पवयण मायाओ पण्णत्ताओ तं जहा-ईरिया समिई, भाषा समिई, एसणासमिई, आयाणभंडमत्त णिक्खेवणासमिई, उच्चारपासवण - खेल - जल्ल-सिंघाण-परिद्वावणिया मिती व गुत्ती काय गुत्ती । समवायांग सूत्र
पंच समितीओ पण्णत्ताओ तं जहा इरिया समिती, भासा समिती, एसणा समिती, आयाण भंड-मत्त णिक्खेवणा समिती, उच्चारपासवण खेल-सिंघाण-जल्ल' परिठावणिया समिती । - ठाणांग सूत्र ठाणा - 5
आवश्यक सूत्र में भी पाँच समितिओं में लगे दोषों का प्रतिक्रमण किया गया है ।
उक्त पाँच समितियों से योग्य, शुभतर एवं विशुद्ध प्रवृत्तियों में प्रवृत्ति तो होती ही है, अशुभ से निवृत्ति भी होती है। साधक विवेकपूर्वक गमनागमन की क्रिया करे, हित-मित और संयमित भाषा का प्रयोग भी विवेक पूर्वक करे, गवेषणा पूर्वक आहार आदि को ग्रहण करे, उपकरणों का उपभोग भी सजगता से ममत्व भाव रहित होकर करे और मल-मूत्र त्याग भी उचित स्थान पर यतना पूर्वक करे । इस प्रकार साधक को प्रवृत्ति की सजगतापूर्वक पूर्णता करने को कहा गया है। गमनागमन में किस प्रकार साधक की विवेक पूर्वक प्रवृत्ति हो, इसके लिए ईर्या समिति का विधान किया है।
1. ईया समिति
योग्य मार्ग से, युग प्रमाण (4 हाथ ) आगे की भूमि को आँखों से देखते हुए प्राणि-विराधना से बचते हुए संयमित गमनागमन करना ईर्या समिति है ।
भगवती आराधना के अनुसार मार्ग शुद्धि, उद्योत शुद्धि, उपयोग शुद्धि एवं आलम्बन शुद्धि - इन चार शुद्धियों के आधार पूर्वक गमनागमन रूप प्रवृत्ति को ईर्या समिति कहा है। यहाँ मार्गशुद्धि से अभिप्राय सूक्ष्म प्राणिरहित प्रासु मार्ग है, उद्योत शुद्धि से आशय सूर्य का प्रकाश है, उपयोग शुद्धि से अभिप्राय इन्द्रिय विषयों की चेष्टा रहित तथा ज्ञान दर्शन उपयोग सहित है और आलम्बन- -शुद्धि से तात्पर्य देव - गुरु आदि हैं ।
दशवैकालिक चूर्णि में कहा है— गमनागमन के समय दृष्टि को अधिक दूर डालने से सूक्ष्म प्राणी दिखाई नहीं देते और अधिक पास दृष्टि रखने से एकाएक पैर के नीचे आने वाले प्राणियों को नहीं रोका जा सकता है। इसलिए युग प्रमाण अर्थात् न अतिदूर, न अतिपास भूमि देखकर चलने का विधान किया गया है ।
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आलम्बणेण कालेण मग्गेण, जयणाइ य ।
चउकारण-परिसुद्धं, संजए इरियं रिए || - उत्तराध्ययन सूत्र 24.4
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