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10 जनवरी 2011
जिनवाणी
अल्पेच्छा से संतुष्ट शिष्य की कुशलजन प्रशंसा करते हैं।
8. वयणाई सुकडुभाइं पणयनिसिट्ठाइं विसहियव्वाइं । सीसेणाऽऽयरियाणं नीसेसं मग्गमाणेणं | 4411
जिस प्रकार पत्नी के लिए पति के अत्यधिक कठोर वचन भी सहनीय हैं उसी प्रकार कल्याण मार्ग को खोजते शिष्य के लिए आचार्य ( श्रमण श्रेष्ठ) के कठोर वचन भी सहनीय हैं।
9. विणयो मोक्खद्दारं विणयं मा हु कयाइ छडेज्जा 115411
श्रावक के लिए विनय मोक्ष का द्वार है, अतः विनय व्यवहार को श्रावक कभी नहीं छोड़े। 10. जो अविणीयं विणएण जिणइ, सीलेण जिणइ निस्सीलं । सो जिणइ तिण्णिलोए पावमपावेण सो जिणइ 115511
अविनीत को विनय से, दुःशील को शील से एवं पाप को पुण्य से जीतता है, वह तीनों लोकों में विजय प्राप्त करता है।
11. जो विणओ तं नाणं, जं नाणं सो उ वुच्चइ विणओ। विणएण लहइ ताणं, नाणेण विजाणइ विणयं 116211
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श्रावक को इंगित कर कहा गया है कि जो विनय है वही ज्ञान है और जो ज्ञान है वही विनय है। विनय से ही ज्ञान प्राप्त होता है एवं ज्ञान से ही विनय को जाना जाता है।
इस प्रकार चन्द्रवेध्यक प्रकीर्णक में श्रमण एवं श्रावक किन गुणों से एवं परस्पर किस प्रकार के व्यवहार से महिमा मंडित होता है यह उल्लेख किया गया है। वस्तुतः सद्गुरु के बिना सच्चा ज्ञान जो आत्मा को परमात्मा का साक्षात्कार करावे, संभव नहीं है। तभी कहा है- "गुरु बिन भवनिधि तरहिं न कोई, चाहे विरंचि शंकर सम होई । अर्थात् शिष्य या श्रावक में जब तक सद्गुरु तत्त्व की कृपावृष्टि न हो, तब तक कोई भवसागर को नहीं तैर सकता। दिलबर (परमात्मा ) दिल (हृदय) में जन्म-जन्मान्तर से छिपा है, फिर भी गुरु कृपा के बिना उसका साक्षात्कार बहुत दुष्कर है। इसी को ध्यान में रखकर श्रीमद् राजचन्द्र कहते हैं कि-“आत्म भ्रांति समरोग नहीं, सतगुरु वैद्य सुजान। गुरु आज्ञा सम पथ्य नहीं, औषध विचार ज्ञान ॥" अर्थात् शिष्य या श्रावक आत्म भ्रांति के रोग से ग्रसित है, जिसका निदान मात्र आत्मार्थी सद्गुरु श्रमण के पास है। हर दवा तभी कारगर होती है जब पथ्य का सेवन हो। इस आत्मभ्रान्ति के रोग का पथ्य गुरु आज्ञा में रहना है एवं उनके द्वारा प्रदत्त ज्ञान एवं सद्विचार ही इस आत्मभ्रान्ति के रोग की औषधि है । शिष्य या श्रावक सदैव आज्ञांकित नहीं, आज्ञेच्छुक हो वह अधिक उचित है। आज्ञांकित आज्ञा में रहता है, पर उसे आज्ञा से अरुचि भी हो सकती है, जबकि जो आज्ञाकांक्षी या आज्ञेच्छुक है वह तो गुरु की इच्छा को ही अपनी इच्छा एवं गुरु रुचि को अपनी रुचि मानकर सारा जीवन गुरु चरणों में समर्पित कर देता है । इसीलिए आचारांगसूत्र प्रथम श्रुतस्कन्ध 4.3 में कहा है" आणाकंखी पंडिए ।" श्रमण का आज्ञाकांक्षी श्रावक पंडित कहलाता है।
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