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________________ 10 जनवरी 2011 जिनवाणी 153 है, इसी प्रकार गुरु हस्ती स्वयं ज्ञान और चारित्र से ज्योतिर्मान थे और अन्य को भी ज्ञान और चारित्र की ज्योति प्रदान करने के साथ-साथ हर समय हित शिक्षाएँ देते ही रहते थे । एक बार जयपुर में आचार्यश्री रामनिवास बाग से गुजर रहे थे। साथ में श्री मानचन्द्र जी म.सा. (अब उपाध्यायप्रवर) थे । उस समय शेर गरज रहा था। आचार्य भगवन्त ने पूछा- 'क्या बोलता है?' श्री मानचन्द्र जी म.सा. ने कहा कि -'बाबजी, शेर गरज रहा है।' गुरुदेव बोले- "मैं हूँ, मैं हूँ कहकर बता रहा है कि मैं पिजरे में पड़ा हूँ। इसलिए मेरी शक्ति काम नहीं कर रही है। यह आत्मा भी शरीर रूपी पिंजरे में रही हुई है। आत्मा भी समय-समय पर हुंकारती है - मैं हूँ अर्थात् मैं अनन्त ज्ञान से सम्पन्न हूँ | मैं अनन्त दर्शन से सम्पन्न हूँ आदिआदि ।" इस तरह एक बार भगवन्त जयपुर के सुबोध कॉलेज प्रांगण में खड़े थे। पास में पत्थर गढने वाले व्यक्ति पत्थर गढ रहे थे। पत्थर गढते हुए कारीगर पानी छींट रहा था । गुरुदेव ने पूछा 'यह क्या कर रहा है?' उपाध्यायप्रवर पंडित रत्न श्री मानचन्द्र जी म. सा. ने कहा कि काम कर रहा है। गुरुदेव ने कहा कि पत्थर पर पानी डालकर नरम कर रहा है। पत्थर कोमल हो तो ही गढा जायेगा। वे हर समय जीवन निर्माण की बातें बताया करते थे । उनकी छोटी-छोटी बातों में भी बड़ी-बड़ी शिक्षाएँ होती थीं। वे कुशल शिल्पाचारी थे । आपश्री ने अपना सम्पूर्ण जीवन स्व-पर कल्याण में ही समर्पित किया । इसी कारण आपश्री के सम्पर्क में आने वाला कोई भी व्यक्ति खाली नहीं लौटता था । सामायिक, स्वाध्याय, ध्यान, मौन, नैतिक उत्थान, कुव्यसन-त्याग आदि जीवन जीने की कला आपसे प्राप्त होती थी । आपश्री स्वयं ध्यान - मौन के साधक, अप्रमत्त जीवन यापन करने वाले, आकर्षक व्यक्तित्व के धनी, असीम आत्मशक्ति के पुंज, युगद्रष्टा, इतिहासमार्तण्ड, सामायिक- स्वाध्याय प्रणेता एवं चतुर्विध संघ के सफल अनुशासक सिद्ध हुए । इसलिए गुरु का उत्तरदायित्वमूलक लक्षण बताते हुए कहा गया है - गृणाति धर्मं शिष्यं प्रतीति गुरुः । अर्थात् जो शिष्य को उसका धर्म बताता है, सिखाता है, वह गुरु है । कुमारप्रबन्ध में भी गुरु का उत्तरदायित्वमूलक अर्थ बताया गया है - सत्त्वेभ्यः सर्वशास्त्रार्थदेशको गुरुच्यते । जो एकान्त हितबुद्धि से प्रेरित होकर जिज्ञासु जीवों को सभी शास्त्रों का सच्चा अर्थ समझाता है वही गुरु कहलाता है । आपकी उच्चकोटि की निर्मल संयम-साधना, विद्वत्ता, सूझबूझ, समन्वयशीलता, गुणियों के प्रति प्रमोदभाव आदि अनेक गुणों के कारण आपको श्रमणसंघ के आचार्य पूज्य श्री आत्माराम जी म.सा. ने 'पुरिसवरगंधहत्थी' जैस शब्दों से सम्मानित किया । आप सुयोग्य शिष्य थे, जो अपने गुरु के हृदय में निवास करते थे । गुरुदेव का ज्ञान अगाध था । आगम, थोकड़े, इतिहास, संस्कृत, प्राकृत, तन्त्र-मन्त्र चाहे जिस विषय पर उनसे चर्चा की जा सकती थी । तत्त्वचिन्तक श्री प्रमोदमुनि जी म. सा. ने फरमाया- सवाईमाधोपुर के सन् 1990 चातुर्मासोपरान्त हम पाली पहुँचे। गुरुदेव ने फरमाया कि महेन्द्र मुनि जी और गौतममुनि जी एक घण्टा पाठ सुनाते हैं, अब तू भी एक घण्टा सुनाया कर । मैं अब पढ़ नहीं सकता इसलिए तुम मुझे निरन्तर सुनाते रहो। वृद्धावस्था में भी भगवन्त की स्वाध्याय एवं जिनवाणी के प्रति कैसी निष्ठा । स्वयं वाचन नहीं कर सकते तो Jain Educationa International For Personal and Private Use Only www.jainelibrary.org
SR No.229967
Book TitleAcharya Hasti me Guru Tattva
Original Sutra AuthorN/A
AuthorManjula Bamb
PublisherZ_Jinvani_Guru_Garima_evam_Shraman_Jivan_Visheshank_003844.pdf
Publication Year2011
Total Pages6
LanguageHindi
ClassificationArticle & 0_not_categorized
File Size1 MB
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