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जिनवाणी
10 जनवरी 2011
(लम्पट) अपना भक्षण न बना लें, भृत्यगण लूटें नहीं, धूर्त छल न सकें, स्त्रियाँ लुभा न सकें, लक्ष्मी तुम्हारी विडम्बना न करे, अहङ्कार नचाये नहीं, काम प्रमादी न बना दे, विषय कुपथ पर न ले जाये, राग अपनी ओर न खींच सके और सुख अपने अधीन न कर ले.
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एक गुरु का शिष्य के प्रति दिया गया यह निर्देश प्रत्येक कल्याण के अभिलाषी के लिए है जिससे कि उसकी दुरवस्था न हो जाए और एक सद्गुरु का अभिलाष भी यही होता है । गुरु की निर्मल शिक्षाओं से व्यक्ति के अन्तःकरण का प्रक्षालन हो जाता है और वह ऐसा हो जाता है मानों स्नान के बाद अङ्गराग एवं अलङ्करण आदि से पवित्र होता हुआ चमचमा उठा हो । गुरु तत्त्व की सत्ता और गुरु के उपदेश का औचित्य अब और अधिक व्याख्या की अपेक्षा नहीं करता है, क्योंकि जिसे इसमें सन्देह है, उसके लिए 'कादम्बरी' का 'शुकनासोपदेश' संज्ञक अंश ही प्रत्युत्तर के रूप में पर्याप्त है। गुरु तो ज्ञान (भारती) का सागर है जिसमें से शिष्य जितना भी ले ले कम है और गुरु कितना भी दे दे कभी रिक्त नहीं होता है, क्योंकि सत्पात्र को विद्यादान से विद्या बढ़ती है ।" वस्तुतः तो 'हमारे जीवन में गुरु का क्या महत्त्व है?' इसका उत्तर तो हमारे अन्तर् में ही विद्यमान है । विमल हृदय व्यक्ति इसका आत्मालोचन कर सकता है।
सन्दर्भ:
1. श्री शंकराचार्य, (स्वामी संवित् सोमगिरि, संवित् साधनायन, अर्बुदाचल, 1987), पृ. 46-47 2. गृ शब्दे' धातु, 'कृग्रोरुच्च' (उणादि सूत्र 1.24) से 'उ' प्रत्यय होकर बना 'गुरु' शब्द ।
3. शृणुष्वावहितो विद्वन्यन्मया समुदीर्यते ।
तदेतच्छ्रवणात्सद्यो भवबन्धाद्विमोक्ष्यसे । - विवेक-चूड़ामणि, (श्री शंकराचार्य), श्लोक, 70
4. 'आज्ञा गुरूणां ह्यविचारणीया' । - रघुवंश (कालिदास), 14.46
5. बृहदारण्यक उपनिषद् 1.3.28
6. अज्ञान से उत्पन्न भ्रान्त भावनाओं को और बन्धन की प्रतीति को हटाना मात्र ही साधना है ।
7. वित्तं बन्धुर्वयः कर्म विद्या भवति पञ्चमी ।
एतानि मान्यस्थानानि गरीयो यद्यदुत्तरम् ॥ मनुस्मृति, 2.136
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8. भगवद् गीता, 4. 38
9. यच्छ्रेयः स्यान्निश्चितं ब्रूहि तन्मे ।
शिष्यस्तेऽहं शाधि मां त्वां प्रपन्नम् ॥ - गीता, 2.7
10. गीता सुगीता कर्त्तव्या किमन्यैः शास्त्रविस्तरैः ।
या स्वयं पद्मनाभस्य मुखपद्माद्विनिःसृता ॥ - महाभारत
11. सप्तम शताब्दी में संस्कृत के महाकवि बाणभट्ट द्वारा रचित गद्यकाव्य ।
12. प्रसिद्ध वाक्य
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