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________________ 135 || 10 जनवरी 2011 || जिनवाणी इस प्रकार गुरु-शिष्यों के मध्य पवित्र सम्बन्धों की महती आवश्यकता है। गुरु और शिष्य दोनों के अभिन्न सम्बन्ध को समझना चाहिए, तभी शिक्षा के मर्म को समझा जा सकता है। इसी का दूसरा नाम 'उपनिषद्' है। श्रद्धापूर्वक गुरुमुख से निरन्तर अधिगत विद्या (शिक्षा) ही मानव समाज को उपकृत कर सकती है। सही मायने में आज ऐसे शिक्षक और शिक्षार्थी जिस महाविद्यालय में हों वही शिक्षामहाविद्यालय कहलाने के अधिकारी हैं। निष्कर्ष 'कादम्बरी' में मन्त्री शुकनास के माध्यम से चन्द्रापीड को जो उपदेश दिया गया है, वह कल्याण के अभिनिवेशी प्रत्येक व्यक्ति के लिए मङ्गलायन है। हर वह व्यक्ति जो अपना उत्कर्ष चाहता है, कल्याण चाहता है, गुरु के महत्त्व को समझना चाहता है, उसे कादम्बरी का यह अंश अवश्य पढ़ना चाहिए। गुरु-माहात्म्य इसमें विवेचित है और यह ‘कादम्बरी' का 'शुकनासोपदेश' नामक अंश स्वयं गुरु का उपदेश है। अतः किसी भी पहलू से देखें यह उत्कृष्ट अंश हमारे सभी प्रश्नों का समाधान भी करता है और हमारे ज्ञान के क्षेत्र को विस्तार भी प्रदान करता है। गुरु की महिमा उनकी शिक्षाओं में निहित है। ये शिक्षाएँ युवाओं, राजाओं अथवा देश का सञ्चालन करने वालों, धनिकों, ऐश्वर्यसम्पन्न मनुष्यों, अमानुषी शक्तिमान् जनों, अनुपम सौन्दर्य के धनी व्यक्तियों, लक्ष्य-प्राप्ति हेतु उद्यमी लोगों के लिए सोने पर सुहागा के समान कार्य करती हैं। साथ ही उन्हें विभिन्न दोषों से भी बचाती हैं। पूर्व में युवावस्था के विकारों का वर्णन किया जा चुका है। प्रत्येक युवा को इनसे बचने की चेष्टा करनी चाहिए। यौवनजन्य इन दोषों से बचने के लिए गुरु द्वारा पथ प्रदर्शन अत्यन्त आवश्यक है जो गुरु-महिमा का प्रायोगिक निदर्शन है। इसी से मनुष्य की लोकयात्रा सफल हो सकती है। शासकवर्ग के लिए तो यह गुरु का उपदेश नितान्त आवश्यक है, क्योंकि भय से लोग प्रतिध्वनि के सदृश उनके वचनों का अनुसरण ही करते हैं, मार्गदर्शन नहीं। उन्हें उपदेश देने का साहस वही कर सकता है जो निर्भीक, प्रभावशाली एवं दृढनिश्चयी हो और ऐसा व्यक्तित्व विरल होता है। इसके अतिरिक्त प्रबल अभिमान के कारण वे किसी की सुनते ही नहीं हैं और सुनते भी हैं तो गज के समान निमीलित नेत्रों से अवज्ञापूर्वक । उनका ऐसा आचरण हितोपदेश देने वाले गुरुजनों को खेद पहुँचाता है। इतना ही नहीं वे मिथ्याभिमान से उन्मादित हो जाते हैं और दूसरी ओर राजलक्ष्मी उन्हें राजसत्ता रूपी विष चढ़ाकर भोगविलास रूपी तन्द्रा में जकड़ लेती है। अतः उन्हें गुरूपदेश का श्रवण, मनन और निदिध्यासन करना चाहिए ताकि वे सत्ता के मद में विवेकहीन होकर अनर्थ को निमन्त्रण न दें। वस्तुतः तो गुरु के उपदेश का महत्त्व एवं औचित्य शुकनास द्वारा युवराज चन्द्रापीड को कहे गए इन निर्देशों में ही निहित है-'...........लोग तुम पर हँसे नहीं, साधुनजन निन्दा न करें, गुरुजन धिक्कार न दें, मित्र उपालम्भ न दें, विद्वान् शोक न करें, कामीजन तुम्हारी बुराई न करें, चतुर ठग न सकें, भुजङ्ग Jain Educationa International For Personal and Private Use Only www.jainelibrary.org
SR No.229962
Book TitleSanmarg Pravrutti Hetu Guru Updesh ka Mahattva
Original Sutra AuthorN/A
AuthorRucha Sharma
PublisherZ_Jinvani_Guru_Garima_evam_Shraman_Jivan_Visheshank_003844.pdf
Publication Year2011
Total Pages16
LanguageHindi
ClassificationArticle & 0_not_categorized
File Size2 MB
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