________________ 122 जिनवाणी | 10 जनवरी 2011 | अर्थः- कोई तत्त्व गुरु से अधिक नहीं है, गुरुसेवा से बढ़कर कोई तप नहीं है, ज्ञान से बढ़कर तत्त्व नहीं है, ऐसे गुरु को नमन। गुरुदर्शितमार्गेण मनःशुद्धिं तु कारयेत् / अनित्यं खण्डयेत् सर्व यत्किञ्चिदात्मगोचरम् / / 99 / / अर्थ:- गुरु द्वारा दिखाए गए मार्ग से मन का शोधन करना चाहिए। अपने द्वारा ज्ञात अनित्य पदार्थों के प्रति रही हुई आसिक्त को खण्डित कर देना चाहिए। श्रुतिस्मृती अविज्ञाय केवलं गुरुसेवकाः। ते वै संन्यासिनः प्रोक्ता इतरे वेषधारिणः / / 108 / / अर्थः- श्रुति, स्मृति को नहीं जानते हुए भी जो गुरु की सेवा में संलग्न हैं, वे संन्यासी कहे गए हैं। दूसरे केवल वेशधारी संन्यासी होते हैं। गुरोः कृपाप्रसादेन आत्मारामं निरीक्षयेत् / अनेन गुरुमार्गेण स्वात्मज्ञानं प्रवर्तते / / 110 // अर्थः- गुरु का आशीर्वाद प्राप्त कर शिष्य आत्मविषयक चिन्तन करे, इसी गुरूपदिष्ट मार्ग से आत्मस्वरूप का ज्ञान प्रकट होता है। वन्देऽहं सच्चिदानन्दं भेदातीतं सदा गुरुम् / नित्यं पूर्ण निराकारं निर्गुणं स्वात्मसंस्थितम् / / 112 / / अर्थः- सत्, चित्, आनन्द स्वरूप, भेदातीत, नित्य, पूर्ण, निराकार, निर्गुण एवं स्वात्म में स्थित गुरुदेव को मैं नमस्कार करता हूँ। Jain Educationa International For Personal and Private Use Only www.jainelibrary.org