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________________ 10 जनवरी 2011 जिनवाणी 105 सूर की गोपियां तो बिना गुरु के योग सीख ही नहीं सकीं। वे उद्धव से मथुरा ले जाने के लिए कहती हैं जहाँ जाकर वे गुरु श्याम से योग का पाठ ग्रहण कर सकें। भक्ति-धर्म में सूर ने गुरु की आवश्यकता अनिवार्य बतलाई है और उसका उच्च स्थान माना है । सद्गुरु का उपदेश ही हृदय में धारण करना चाहिए क्योंकि वह सकल भ्रम का नाशक होता है - "सद्गुरु को उपदेश हृदय धरि, जिन भ्रम सकल निवारयौ ।।“ सूर गुरु महिमा का प्रतिपादन करते हुए करते हैं कि हरि और गुरु एक ही स्वरूप हैं और गुरु के प्रसन्न होने से हरि प्रसन्न होते हैं। गुरु के बिना सच्ची कृपा करने वाला कौन है ? गुरु भवसागर में डूबते हुए को बचाने वाला और सत्पथ का दीपक है ।" सहजोबाई भी कबीर के समान गुरु को भगवान से भी बड़ा मानती है।" दादू लौकिक गुरु को उपलक्षण मात्र मानकर असली गुरु भगवान को मानते हैं। " नानक भी कबीर के समान गुरु की ही बलिहारी मानते हैं, जिसने ईश्वर को दिखा दिया अन्यथा गोविन्द का मिलना कठिन था। 18 'सुन्दरदास भी "गुरुदेव बिना नहीं मारग सूझय” कहकर इसी तथ्य को प्रकट करते हैं। " तुलसी ने भी मोहभ्रम दूर होने और राम के रहस्य को प्राप्त करने में गुरु को ही कारण माना है। रामचरितमानस के प्रारम्भ में ही गुरु-वन्दना करके उसे मनुष्य के रूप में करुणासिन्धु भगवान माना है। गुरु का उपदेश अज्ञान के अंधकार को दूर करने के लिए अनेक सूर्यों के समान है बंदऊं गुरुपद कंज कृपासिन्धु नररूप हरि । महामोह तम पुंज जासु वचन रवि कर निकर ।। " कबीर के समान ही तुलसी ने भी संसार को पार करने के लिए गुरु की स्थिति अनिवार्य मानी है । साक्षात् ब्रह्मा और विष्णु के समान व्यक्तित्व भी, गुरु के बिना संसार से मुक्त नहीं हो सकता । " सद्गुरु ही एक ऐसा दृढ़ कर्णधार है जो जीव के दुर्लभ कामों को भी सुलभ कर देता है करनधार सद्गुरु दृढ़ नावा, दुर्लभ साज सुलभ करि पावा ।" मध्यकालीन हिन्दी जैन कवियों ने भी गुरु को इससे कम महत्त्व नहीं दिया । उन्होंने तो गुरु को वही स्थान दिया है जो अर्हन्त को दिया है। पंच परमेष्ठियों में सिद्ध को देव माना है और शेष चारों को गुरु रूप स्वीकारा है। ये सभी 'दुरित हरन दुखदारिद दोन' के कारण हैं।” कबीरादि के समान कुशल लाभ ने शाश्वत सुख की उपलब्धि को गुरु का प्रसाद कहा है- “ श्री गुरु पाय प्रसाद सदा सुख संपजइ रे”।“ रूपचन्द ने भी यही माना । बनारसीदास ने सद्गुरु के उपदेश को मेघ की उपमा दी है जो सब जीवों का हितकारी है । " मिथ्यात्वी और अज्ञानी उसे ग्रहण नहीं करते, पर सम्यग्दृष्टि जीव उसका आश्रय लेकर भव से पार हो जाते हैं।" एक अन्यत्र स्थल पर बनारसीदास ने उसे “संसार सागर तरन तारन गुरु जहाज विशेखिये" कहा है।" Jain Educationa International For Personal and Private Use Only www.jainelibrary.org
SR No.229958
Book TitleJain Sadhna me Sadguru ka Mahattva
Original Sutra AuthorN/A
AuthorPushpalata Jain
PublisherZ_Jinvani_Guru_Garima_evam_Shraman_Jivan_Visheshank_003844.pdf
Publication Year2011
Total Pages12
LanguageHindi
ClassificationArticle & 0_not_categorized
File Size2 MB
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