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________________ 10 जनवरी 2011 जिनवाणी 103 भूधरदास को भी श्री गुरु के उपदेश अनुपम लगते हैं इसलिए वे सम्बोधित कर कहते हैं- “सुन ज्ञान प्राणी, श्री गुरु सीख सयानी "2" । गुरु की यह सीख रूप गंगा नदी भगवान महावीर रूपी हिमाचल से निकली, मोह-रूपी महापर्वत को भेदती हुई आगे बढ़ी, जग को जड़ता रूपी आतप को दूर करते हुए ज्ञान रूप महासागर में गिरी, सप्तभंगी रूपी तरंगें उछलीं। उसको हमारा शतशः वन्दन । सद्गुरु की यह वाणी अज्ञानान्धकार को दूर करने वाली है । बुधजन सद्गुरु की सीख को मान लेने का आग्रह करते हैं- “सुठिल्यौ जीव सुजान सीख गुरु हित की कही। रुल्यौ अनन्ती बार गति-गति सातान लही । (बुधजन विलास, पद 99 ), गुरु द्वारा प्रदत्त ज्ञान के प्याले से कवि बुधजन घोर जंगलों से दूर हो गये: - गुरु ने पिलाया जो ज्ञान प्याला । यह बेखबरी परमावां की निजरस में मतवाला । यों तो छाक जात नहिं छिनहूं मिटि गये आन जंजाल । अद्भुत आनन्द मगन ध्यान में बुद्धजन हाल सम्हाला ॥ - बुधजन विलास, पद 77 समयसुन्दर की दशा गुरु के दर्शन करते ही बदल जाती है और पुण्य दशा प्रकट हो जाती हैआज कू धन दिन मेर उ । पुण्यदशा प्रगटी अब मेरी पेखतु गुरु मुख तेरउ ।। (ऐतिहासिक जैन काव्य संग्रह, पृ. 129 ) सन्त साधुकीर्ति तो गुरु दर्शन के बिना विह्वल से दिखाई देते हैं । इसलिए सखि से उनके आगमन का मार्ग पूछते हैं। उनकी व्याकुलता निर्गुण संतों की व्याकुलता से भी अधिक पवित्रता लिए हुए है (ऐतिहासिक जैन काव्य संग्रह, पृ. 91 ) इस प्रकार सद्गुरु और उसकी दिव्यवाणी का महत्त्व रहस्य साधना की प्राप्ति के लिए आवश्यक है । सद्गुरु के प्रसाद से ही सरस्वती की प्राप्ति होती है (सिद्धान्त चौपाई, लावण्य, समय, 1.2 ) और उसी से एकाग्रता आती है (सारसिखामनरास, संवेग - सुन्दर उपाध्याय, बड़ा मन्दिर जयपुर की हस्तलिखित प्रति)। ब्रह्ममिलन के महापथ का दिग्दर्शन भी यही कराता है । परमात्मा से साक्षात्कार कराने में सद्गुरु का विशेष योगदान रहता है । माया का आच्छन्न आवरण उसी के उपदेश और सत्संगति से दूर हो पाता है। फलतः आत्मा परम विशुद्ध बन जाता है । उसी विशुद्ध आत्मा को पूज्यपाद ने निश्चय नय की दृष्टि से सद्गुरु कहा है- "नयत्यात्मात्मेव जन्म निर्वाणमेव च गुरुरात्मात्मनस्तस्मान्नान्योऽस्ति परमार्थतः " - समाधितन्त्र, 65 प्रायः सभी दार्शनिकों ने नरभव की दुर्लभता को स्वीकार किया है। यह सम्भवतः इसलिए भी होगा कि ज्ञान की जितनी अधिक गहराई तक मनुष्य पहुँच सकता है उतनी गहराई तक अन्य कोई नहीं । साथ ही यह भी तथ्य है कि जितना अधिक अज्ञान मनुष्य में हो सकता है उतना और दूसरे में नहीं । ज्ञान Jain Educationa International For Personal and Private Use Only www.jainelibrary.org
SR No.229958
Book TitleJain Sadhna me Sadguru ka Mahattva
Original Sutra AuthorN/A
AuthorPushpalata Jain
PublisherZ_Jinvani_Guru_Garima_evam_Shraman_Jivan_Visheshank_003844.pdf
Publication Year2011
Total Pages12
LanguageHindi
ClassificationArticle & 0_not_categorized
File Size2 MB
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