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गुरु का महत्त्व श्रीमती सुशीला बोहरा
पुष्ट
प्रस्तुत आलेख में गुरु के महत्त्व को विभिन्न उद्धरणों, उदाहरणों एवं विचारों से किया गया है। -सम्पादक
गुरु की महिमा अपरम्पार है । गुरु शब्द से ही मस्तक श्रद्धा से झुक जाता है। वह शिष्य को अज्ञानरूपी अंधकार से निकाल कर ज्ञान रूपी प्रकाश के दर्शन कराता है, ऐसे गुरु को देव तुल्य माना गया है। कहा भी है -
गुरुर्ब्रह्मा गुरुर्विष्णु गुरुर्देवो महेश्वरः । गुरुः साक्षात् परं ब्रह्म, तस्मै श्री गुरवे नमः ॥
गुरु ही ब्रह्मा, विष्णु और महेश्वर है वही साक्षात् परम ब्रह्म है, ऐसे गुरु को नमस्कार है। गुरु हमें हिताहित का ज्ञान कराता है। माता-पिता बच्चों को जन्म देकर उनका पालनपोषण करते हैं, लेकिन गुरु जीवन का निर्माण करते हैं। जन्म देने वाले प्रातः स्मरणीय एवं वन्दनीय होते हैं जो हमें दुनियाँ दिखाते हैं लेकिन आध्यात्मिक गुरु तो उससे भी अधिक पूजनीय होते हैं जो मोक्ष का मार्ग दिखाकर जन्ममरण की श्रृंखला को ही समाप्त कर जन्मातीत होने में प्रेरक होते हैं। जहाँ जन्म नहीं, जरा नहीं, मरण नहीं, रोग नहीं, शोक नहीं, दुःख नहीं, दारिद्र्य नहीं, कर्म नहीं, काया नहीं, मोह नहीं, माया नहीं, ज्योति में ज्योति स्वरूप होने का सौभाग्य मिलता है।
10 जनवरी 2011 जिनवाणी
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जो अज्ञानरूपी अन्धकार को दूर कर ज्ञान रूपी प्रकाश दिखाये वह गुरु होता है। वैसे सामान्य दृष्टि से •. जिससे हम कुछ सीखते हैं वह गुरु है, चाहे वह आध्यात्मिक गुरु हो या शैक्षिक । शैक्षिक गुरु हमें अक्षरज्ञान सिखा कर रोजीरोटी कमाने लायक बनाता है अर्थात् पेट एवं पेटी भरने की शिक्षा देता है, लेकिन आध्यात्मिक गुरु हमें ठेठ की शिक्षा देता है, अर्थात् जीवन-लक्ष्य को प्राप्त करने का सुगम उपाय बताता है।
जैन दर्शन की दृष्टि से ऐसा आध्यात्मिक गुरु वही हो सकता है जो -
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सोहु गुरु जो णाणी, आरम्भपरिग्गहा विरओ। पंचिंदिय-संवरणो, तह नवविह बंभचेरगुत्तिधरो ।।
-जैन तत्त्व प्रकाश, 21
वही गुरु है जो ज्ञानी है, आरम्भ एवं परिग्रह से विरत है, पाँचों इन्द्रियों को संयत रखने वाला है तथा जो प्रकार से ब्रह्मचर्य की गुप्ति का धारक है। ऐसे गुरु स्वयं निर्दोष मार्ग पर चलते हैं और बिना किसी स्वार्थ के
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