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________________ 110 जनवरी 2011 जिनवाणी 58 गुरु-शिष्य का स्वरूप एवं अन्तः सम्बन्ध क्षुल्लक श्री ध्यानसागर जी गुरु में ज्ञान के साथ निरभिमानता, निःस्वार्थता, करुणा, सरलता, निर्विकारता, आचरण में शुद्धता आदि अनेक गुण होते हैं तो शिष्य में गुरु के समर्पण, विनयशीलता, ग्राहिता जैसे सद्गुण होते हैं। गुरु एवं शिष्य दोनों सद्गुणी हों तो कहना ही क्या ? आचार्य विद्यासागर जी के शिष्य क्षुल्लक ध्यानसागर जी के प्रस्तुत आलेख में उत्कृष्ट गुरु एवं श्रेष्ठ शिष्य के स्वरूप का निरूपण तो हुआ ही है उनके पारस्परिक सम्बन्ध की भी विशद चर्चा हुई है। आलेख मननीय एवं धारणीय है। -सम्पादक गुरु-शिष्य का सम्बन्ध आस्था और प्रेम का पवित्र सम्बन्ध है । भले ही सम्बन्ध बन्धन हो, यह बन्धन अनन्त-बन्धन का अन्त करता है । गुरु, शिष्य को भौतिक जगत् से ऊपर उठाकर भावनाजगत् में स्थापित करते हैं जहाँ से अध्यात्म- जगत् की उड़ान भरी जा सके। भावना जगत् की नींव करुणा है और शिखर विश्व - प्रेम है। इसी प्रकार अध्यात्म जगत् का प्रवेशद्वार निज का एकत्व - बोध है तथा साक्षी-भाव उसका उन्नत शिखर है। मैं तू, मेरा-तेरा, प्रिय-अप्रिय, सुख-दुःख, छोटा-बड़ा, राग-द्वेष, ग्रहण-त्याग आदि द्वन्द्व अध्यात्म के असीम विस्तार में न जाने कहाँ विलीन हो जाते हैं। अपने आप को उच्च अथवा तुच्छ समझना तात्त्विक भ्रम है, अतः इसके निवारण बिना कभी यथार्थ एकत्वबोध नहीं होता । प्रायः देखा जाता है कि मनुष्य सफल होने पर अपनी क्षमता पर फूल उठता है और असफल होने पर अपनी क्षमता को भूल बैठता है, संपत्ति में अपने को सबल और विपत्ति में निर्बल समझने लगता है। एक असहाय संकटग्रस्त मानव का अकेलापन अध्यात्म-जगत् का एकत्व-बोध नहीं है, क्योंकि वह अंतरङ्ग-तत्त्व से अपरिचित है, केवल बाह्य जगत् में उलझा है। तत्त्व का शाब्दिक परिचय उलझन का समाधान नहीं है अतः जीवन में गुरु का स्थान अनिवार्य हो जाता है, क्योंकि सुलझने का रहस्य तो उन्हीं के पास है, अन्यत्र नहीं । यथार्थ गुरु अन्दर-बाहर से योगी होते हैं, भोगी नहीं, कारण कि विलासिता और सात्त्विकता में 36 का आँकड़ा है। आँखों में निःस्वार्थ प्रेम, हृदय में अपरिमित - करुणा, शुद्धआचरण, अगाध-अनुभव, निरभिमानता, सरलता एवं शिशु जैसी निर्विकार- छवि में ब्रह्मचर्य का दिव्य तेज, गुरु के जीवन में अहिंसा का अमृत रस घोलने वाले दुर्लभ गुण हैं। यही कारण है कि गुरु साक्षात् शान्तिदूत होते हैं । Jain Educationa International For Personal and Private Use Only www.jainelibrary.org
SR No.229951
Book TitleGuru Shishya ka Swarup evam Ant Sambandh
Original Sutra AuthorN/A
AuthorDhyansagar
PublisherZ_Jinvani_Guru_Garima_evam_Shraman_Jivan_Visheshank_003844.pdf
Publication Year2011
Total Pages10
LanguageHindi
ClassificationArticle & 0_not_categorized
File Size2 MB
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