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________________ 32 जिनवाणी || 10 जनवरी 2011 || तभी धर्मराज भीष्म पितामह के पास आकर प्रणाम करते हैं और कहते हैं- “पूज्य पितामह! आपके सामने शस्त्र उठाने का अवसर आ गया है। यह मेरे मन को बहुत ही अप्रिय लगा है, क्या करूँ? विवश हूँ। अब आप हमें युद्ध करने की आज्ञा प्रदान कीजिए।" युधिष्ठिर की विनम्रता से भीष्म पितामह गद्गद हो गये। बोले-“धर्मराज! तुम वास्तव में ही धर्मराज हो! तुमने हमारी गौरवमयी परम्परा को अक्षुण्ण रखा है, मैं तुमसे प्रसन्न हूँ। यदि तुम इस प्रकार नम्रतापूर्वक मुझसे युद्ध की अनुमति लेने नहीं आते तो मैं अवश्य ही तुम्हारी पराजय की कामना करता, परन्तु तुम्हारी नम्रता और धर्मशीलता ने मुझे विवश कर दिया, मैं तुम्हें विजयी होने का आशीर्वाद देता हूँ। मैं दुर्योधन का पाप का अन्न खाने से अधर्म का साथ देने पर मजबूर हूँ, अब तुम इस बात को छोड़कर मुझसे अन्य कोई सहायता माँग सकते हो।" युधिष्ठिर कहते हैं- “पूज्य पितामह! आपसे युद्ध करके हम किस प्रकार विजयी बन सकते हैं, यदि नहीं तो फिर आपका यह आशीर्वाद कैसे सफल हो सकता है?" भीष्म ने कहा- “धर्म-पुत्र! इस युद्ध में विजय तुम्हारी होगी, यह मेरा आशीर्वाद है। रहा प्रश्न मुझे परास्त करने का, इसका रहस्य भी समय आने पर मैं तुम्हें अवश्य बता दूंगा।" युधिष्ठिर वहाँ से द्रोणाचार्य के पास आये और दण्डवत् प्रणाम करके बोले-“गुरुदेव! विवश होकर हमें आपसे युद्ध करना पड़ रहा है, आप हमें युद्ध की आज्ञा दीजिये और आशीर्वाद भी।" द्रोणाचार्य ने भी अपनी विवशता बताते हुए कहा-“विजयी भव।" युधिष्ठिर बोले-“गुरुदेव! आपके होते हुए हम इस युद्ध में विजयी कैसे हो सकते हैं? फिर आपका आशीर्वाद कैसे सार्थक होगा?" द्रोणाचार्य ने कहा-“यह सत्य है कि मेरे हाथ में अस्त्र-शस्त्र रहते हुए मुझे कोई मार नहीं सकता.....किन्तु फिर भी मैंने तुमको विजयश्री का आशीर्वाद दे दिया है और एक स्थिति ऐसी आयेगी तब तुम शस्त्र चलाकर मुझे मार दोगे।" द्रोणाचार्य ने भी युधिष्ठिर को अपनी मृत्यु का रहस्य बता दिया। इसी प्रकार कृपाचार्य और शल्यराज जो युधिष्ठिर के मामा भी थे और महारथी कर्ण के सारथी भी, उनसे भी युद्ध की आज्ञा और विजय का आशीर्वाद प्राप्त कर लिया। कृपाचार्य ने भी अपनी मृत्यु का रहस्य युधिष्ठिर को बता दिया और कहा-“मैं प्रतिदिन भगवान से तुम्हारी विजय के लिए प्रार्थना करता रहूँगा।" शल्य ने भी धर्मपुत्र को वचन दिया कि मैं वचन मैं बँधा होने से दुर्योधन के पक्ष में लडूंगा, किन्तु मैं तुम्हारी विजय के लिए कर्ण को हतोत्साहित करता रहूँगा । फलस्वरूप वह साहसहीन होकर स्वयं ही तुम्हारी विजय की बाधा को दूर कर देगा। इस प्रकार गुरुजनों को प्रणाम करके युधिष्ठिर ने अपनी नम्रता से ही महाभारत का आधा युद्ध जीत Jain Educationa International For Personal and Private Use Only www.jainelibrary.org
SR No.229945
Book TitleShraddha aur Samarpan se Milta Hai Guru ka Ashirwad
Original Sutra AuthorN/A
AuthorDevendramuni Shastri
PublisherZ_Jinvani_Guru_Garima_evam_Shraman_Jivan_Visheshank_003844.pdf
Publication Year2011
Total Pages6
LanguageHindi
ClassificationArticle & 0_not_categorized
File Size1 MB
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