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श्राचार्य श्री हस्तीमलजी म. सा.
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अनेक वादों का जन्म हुआ है । समाजवाद, साम्यवाद, सर्वोदयवाद आदि इसी के फल हैं । प्राचीन काल में अपरिग्रहवाद के द्वारा इस समस्या का समाधान किया जाता था । इस वाद की विशेषता यह है कि यह धार्मिक रूप में स्वीकृत है । प्रतएव मनुष्य इसे बलात् नहीं, स्वेच्छा पूर्वक स्वीकार करता है । साथ ही धर्मशास्त्र महारंभी यंत्रों के उपयोग कर पाबंदी लगा कर आर्थिक वैषम्य को उत्पन्न नहीं होने देने की भी व्यवस्था करता है । अतएव अगर अपरिग्रह व्रत का व्यापक रूप में प्रचार और अंगीकार हो, तो न अर्थ वैषम्य की समस्या विकराल रूप धारण करे और न वर्ग संघर्ष का अवसर उपस्थित हो । मगर आज की दुनिया धर्मशास्त्रों की बात सुनती कहाँ है । यही कारण है कि संसार अशान्ति और संघर्ष की क्रीड़ाभूमि बना हुआ है और जब तक धर्म का आशय नहीं लिया जायगा, तब तक इस विषम स्थिति का अन्त नहीं आएगा ।
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देशविरति धर्म के साधक ( श्रावक ) को अपनी की हुई मर्यादा से अधिक परिग्रह नहीं बढ़ाना चाहिए । उसे परिग्रह की मर्यादा भी ऐसी करनी चाहिए कि जिससे उसकी तृष्णा पर अंकुश लगे, लोभ में न्यूनता हो और दूसरे लोगों को कष्ट न पहुँचे ।
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सर्वविरत साधक ( श्रमण ) का जीवन तो और भी अधिक उच्चकोटि का होता है । वह आकर्षक शब्द, रूप, गंध, रस और स्पर्श पर राग और अनिष्ट शब्द आदि पर द्वेष भी नहीं करेगा । इस प्रकार के आचरण से जीवन में निर्मलता बनी रहेगी । ऐसा साधनाशील व्यक्ति चाहे अकेला रहे या समूह में रहे, जंगल में रहे, या समाज में रहे, प्रत्येक स्थिति में अपना व्रत निर्मल बना सकेगा ।
स्वाध्याय की भूमिका
परिग्रह वृत्ति को घटाने में स्वाध्याय की असरकारी भूमिका होती है । स्वाध्याय वस्तुतः अन्तर में अलौकिक प्रकाश प्रकट करने वाला है । स्वाध्याय आत्मा में ज्योति जगाने का एक माध्यम है, एक प्रशस्त साधन है, जिससे प्रसुप्त आत्मा जागृत होती है, उसे स्व तथा पर के भेद का ज्ञान होता है । स्वाध्याय से आत्मा में स्व-पर के भेद के ज्ञान के साथ वह स्थिति उत्पन्न होती है, निरन्तर वह भूमिका बनती है, जिसमें आत्मा स्व तथा पर के भेद को को समझने में प्रतिक्षण जागरूक रहती है । संक्षेप में कहा जाय तो स्वाध्याय के द्वारा स्व-पर के भेद का ज्ञान प्राप्त होता है । जिस प्रबुद्ध प्रात्मा को स्व तथा पर के भेद का ज्ञान प्राप्त हो गया, उसकी पौद्गलिक माया से ममता स्वतः ही कम हो जायगी ।
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