________________ * 314 * व्यक्तित्व एवं कृतित्व फिर दोषों से होने वाले अशुभ फलों का विचार कर दोष-निवारण का दृढ़ संकल्प करना, यह जीवन सुधार का चिन्तन रूप ध्यान है। रूपस्थ ध्यान का सरलता से अभ्यास जमाने हेतु अपने शान्त-दान्तसंयमी प्रिय गुरुदेव का जिस रूप में उन्हें उपदेश एवं प्रवचन करते देखा है, उसी मुद्रा में उनके स्वरूप का चिन्तन करे कि गुरुदेव मुझे कृपा कर उपदेश कर रहे हैं, आदि। देखा गया है कि अन्तर्मन से गुरु चरणों में आत्म-निवेदन कर दोषों के लिये क्षमायाचना करते हुए भी परम शान्ति और उल्लास प्राप्त किया जा सकता है। अपने अनुभव : एक बार की बात है कि मैं तन से कुछ अस्वस्थ था, निद्रा नहीं आ रही थी। बरामदे में चन्द्र की चाँदनी में बाहर बैठा गुरुदेव का ध्यान करते हुये कह रहा था-"भगवन ! इन दिनों शिष्य के सुख-दुःख कैसे भूल बैठे हो ! मेरी ओर से ऐसी क्या चूक हो गई, जो आपका ज्ञान प्रकाश मुझे इन दिनों प्राप्त नहीं हो रहा है ? क्षमा करो गुरुदेव ! क्षमा करो" कहते-कहते दो बार मेरा हृदय भर आया, नयन छलक पड़े। क्षण भर पश्चात् ही मेरे अन्तर में एक प्रकाश की लहर उठी और हृदय के एक छोर से दूसरे छोर तक फैल गई। मैं अल्पकाल के लिये आनन्द विभोर हो गया। दूसरी एक बात नसीराबाद छावनी की है। वहाँ एक दिन शरीर ज्वरग्रस्त होने से निद्रा पलायन कर रही थी। सहसा सीने के एक सिरे में गहरी पीड़ा उठी। मुनि लोग निद्राधीन थे। मैंने उस वेदना को भुला देने हेतु चिन्तन चालू किया-"पीड़ा शरीर को हो रही है, मैं तो शरीर से अलग हूँ, शुद्ध, बुद्ध अशोक और निरोग। मेरे को रोग कहाँ ? मैं तो हड्डी पसली से परे चेतन रूप आत्मा हूँ। मेरा रोग-शोक-पीड़ा से कोई सम्बन्ध नहीं / मैं तो आनन्दमय हूँ।" क्षण भर में ही देखता हूँ कि मेरे तन की पीड़ा न मालूम कहाँ विलीन हो गई / मैंने अपने आपको पूर्ण प्रसन्न, स्वस्थ और पीड़ा रहित पाया / देश काल से अन्तरित वस्तु या विषय का भी ध्यान-बल से साक्षात्कार किया जा सकता है। यह है ध्यान की अनुभूत अद्भुत महिमा / 000 Jain Educationa International For Personal and Private Use Only www.jainelibrary.org