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सम्ममन वा समझो, सामाइयं मुभय विट्ठि भावाश्रो । सम्मस्साओ, लाभो सामाइयं होइ ।। ३४८२ ।।
अहवा
सामायिक : विभिन्न दृष्टियों में :
निश्चय दृष्टि - पूर्ण निश्चय दृष्टि से त्रस स्थावर जीव मात्र पर सम भाव रखने वाले को ही सामायिक होता है, क्योंकि जब तक आत्म प्रदेशों से सर्वथा कंपदशा प्राप्त नहीं होती - निश्चय में सम नहीं कहा जा सकता । कहा है
व्यक्तित्व एवं कृतित्व
जो समोसव्व भूएसु, तसेसु थावरेसु य ।
तस्स सामाइयं होई, इइ केवलि भासियं ॥ अनु० १२८
नय दृष्टि - जैन शास्त्र हर बात को नयदृष्टि से करा कर उसके अंतरंग और बहिरंग दोनों रूप का कथन करता है । अतः सामायिक का भी जरा हम नय दृष्टि से विचार करते हैं ।
नगमादि प्रथम के तीन नय सामायिक के तीनों प्रकार को मोक्षमार्ग रूप से मान्य करते हैं । उनका कहना है कि - जैसे सर्व संवर के बिना मोक्ष नहीं होता, वैसे ज्ञान, दर्शन के बिना सर्व संवर का लाभ भी तो नहीं होता, फिर उनको क्यों नहीं मोक्ष मार्ग कहना चाहिये । इस पर ऋजु सूत्र आदि नय बोले- ज्ञान, दर्शन सर्व संवर के कारण नहीं है, किन्तु सर्व संवर ही मोक्ष का आसन्नतर कारण है ।
( १ ) सामायिक जीव है या उससे भिन्न, इस पर नय अपना विचार प्रस्तुन करते हैं । संग्रह कहता है - आत्मा ही सामायिक है । आत्मा पृथक कोई गुण सामायिक जैसा नहीं है ।
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(२) व्यवहार बोला - आत्मा को सामायिक कहना ठीक नहीं, क्योंकि ऐसा मानने पर जो भी आत्मा हैं, वे सब सामायिक कहलायेंगे, इसलिए ऐसा कहना ठीक नहीं । ऐसा कहो कि जो आत्मा यतनावान है, वह सामायिक है, अन्य नहीं ।
(३) व्यवहार की बात का खण्डन करते ऋजुसूत्र बोला - यतनावान सभी आत्मा सामायिक माने जायेंगे, तो तामलि जैसा मिथ्या दृष्टि भी अपने अनुष्ठान में यतनाशील होते हैं, उनके भी सामायिक मानना होगा, परन्तु ऐसा इष्ट नहीं, उपयोग पूर्वक यतना करने वाला आत्मा ही सामायिक है,
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