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• श्राचार्य श्री हस्तीमलजी म. सा.
कहा जा सकता है जिसमें धर्म और अर्थ के बीच सामंजस्य था । आज भी उसकी श्रावश्यकता है | सद्गुण हममें उसी तरह विद्यमान है जिस तरह लकड़ी में अग्नि । गृहिणी सुयोग्य हो और सदाचरण पूर्वक सन्तति निरोध का ध्यान रखे, यह आज की आवश्यकता है (जिन० अक्टूबर, ६० ) । इसलिए धर्म शिक्षा ही सच्ची शिक्षा है, सत्पुरुषार्थं ही प्रगति का संबल है, तन से पहले मन का चिंतन आवश्यक है, अपने अर्थार्जन के अनुसार व्यय करने की प्रवृत्ति हो, धन का प्रदर्शन न हो, मधुकरी वृत्ति हो, सामुदायिक चेतना के आधार पर मुनाफाखोरी संयमित हो, तप विवेकपूर्वक हो, स्वार्थ प्रेरित न हो ( जिनवाणी, फरवरी, ८३ ) ।
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कर्मादान (कर्माव के कारण ) - जैन धर्म कर्म को पौद्गलिक मानता है इसलिए उसकी निर्जरा को संभवनीय बताता है । प्राचार्य श्री ने कर्मों के स्वरूप को सुन्दर ढंग से विश्लेषित किया, जिसका प्रकाशन 'कर्मादान' के नाम से 'जिनबारी' के अनेक अंकों में लगातार होता रहा है । कर्मादान से तात्पर्य है जिस कार्य या व्यापार से घनघोर कर्मों का बंध हो, जो कार्य महारम्भ रूप हो ऐसे कर्मों की संख्या आगम में १५ बतायी गयी है जिनमें दस कर्म से सम्बद्ध हैं। और ५ व्यापार से । भोगोपभोग परिमाण व्रत में इन्हीं कर्मों के सम्बन्ध में मर्यादा की जाती है । इस सन्दर्भ में उन्होंने प्राकृतिक चिकित्सा की ओर अपना रुझान बताते हुए उसे स्वास्थ्यप्रद उपयोगी और अहिंसक चिकित्सा प्रणाली के रूप में देखा है ( जिनवाणी, नबम्बर, ८७ ) ।
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कर्म दो प्रकार के होते हैं - मृदु कर्म और खर कर्म । जिस कर्म में हिंसा न बढ़ जाये, यह विचार रहता है वह मृदु कर्म है और जो आत्मा के लिए और अन्य जीवों के लिए कठोर बने, वह खर कर्म है । मृदु कर्म सद्गति की ओर ले जाता है और खर कर्म दुर्गति की ओर । कर्मादान का संदर्भ खर कर्म से अधिक है । यह कर्मादान १५ प्रकार का है - १. अंगार कर्म, २. वन कर्म, ३. साड़ी कम्म ( शकट कर्म - गाड़ी चलाना ), ४. भाड़ी कम्म ( जानवरों द्वारा भाड़ा कमाना ), ४. फोड़ी कम्म ( भूमि को खोदना ), ६. दंत बाणिज्य ( दांतों का व्यापार करना ), ७. लक्ख वाणिज्य ( लाक्षा का व्यापार करना ), ८. विष वाणिज्य, ६. केश वाणिज्य, १०. जंत पीलण कम्म ( यन्त्र पीड़न कर्म ), ११. निल्लंछण कम्म (पशुओं को नाथने का कार्य करना), १२. दवग्गि दावरिणया ( खेत या चरागाह में आग लगा देना) १३. सरदह तलाय सोसणया कम्म ( तालाब को सुखाने का काम करना) और १४. असईजन पोसणया कम्म ( व्यभिचार जैसे घृणित कर्म) जिसका अर्थ कुछ लोगों ने किया कि साधुनों के अतिरिक्त किसी भूखे को रोटी देना पाप है । आचार्य श्री ने इस अर्थ की आलोचना की है (जिन. नवम्बर ८७, अक्टूबर ८८ ) ।
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