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कर्म सिद्धान्त और आधुनिक विज्ञान ]
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अर्थात् कर्म के अनुसार प्राणी की बुद्धि होती है। 'यादृशी भावना यस्य सिद्धिर्भवति तादृशी' अर्थात् अच्छे प्राशय से किया गया कार्य पुण्य और बुरे अभिप्राय से किया गया कार्य पाप का निमित्त होता है। इसलिये साधारण लोग यह समझते हैं कि अमुक काम न करने से अपने को पाप-पुण्य का लेप न लगेगा, इससे वे उस काम को तो छोड़ देते हैं, पर बहुधा उनकी मानसिक क्रिया नहीं छूटती, इससे वे इच्छा रहने पर भी पाप-पुण्य के बन्ध से अपने को मुक्त नहीं कर सकते। सच्ची निर्लेपता मानसिक क्षोभ के त्याग में है। अनासक्त कार्य से ही मोक्ष प्राप्त होता है। इसीलिये “कर्मण्येवाधिकारस्ते मा फलेषु कदाचन" (गीता), अर्थात् कर्म करना अपना अधिकार है, फल पाना नहीं । परम पुरुषार्थ या मोक्ष पाने के तीन साधन हैं-श्रद्धा या भक्ति या सम्यग् दर्शन, ज्ञान या सम्यग्ज्ञान और सम्यक् चारित्र अर्थात् कर्म और योग । मनोनिग्रह, इन्द्रिय-जय आदि सात्विक कर्म ही कर्म मार्ग है और चित्त-शुद्धि हेतु की जाने वाली सत्प्रवृत्ति ही योग मार्ग है। कर्ममार्ग और योगमार्ग दोनों ही कर्म-सिद्धान्त के अभिन्न अंग हैं।
चार्ल्स डार्विन का जैव-विकासवाद जिस प्रकार से सरलतम से जटिलतम जीव की उत्पत्ति बतलाता है, उसी प्रकार कर्म-सिद्धान्त भी जीव या आत्मा के आध्यात्मिक विकास को कर्म के आधार पर मानता है और कर्मानुसार जीव को विभिन्न योनियों में से होकर जन्म-जन्मांतर गुजरना पड़ता है। जीव मोह के प्रगाढ़तम परदे को हटाता हा उत्तरोत्तर आध्यात्मिक विकास की परि. मापक रेखामों या गुणस्थानों या चित्त-भूमिकाओं की विभिन्न अवस्थाओं में से होकर गुजरता है (पातंजल योग-दर्शन, योगवासिष्ठ, श्री देवेन्द्रसूरिकृत कर्मविपाक) और जब अज्ञान रूपी हृदय-ग्रंथियाँ विनष्ट हो जाती हैं तभी मोक्ष या कैवल्य प्राप्त होता है (शिव गीता) । यही आत्मा के विकास की पराकाष्ठा है। यही परमात्म-भाव का अभेद है। यही ब्रह्मभाव है। यही जीव का शिव होना है, यही पूर्ण आनन्द है। तपस्या के कारण पुण्य के उदय होने से तत्त्वकी प्राप्ति जीवित अवस्था में यदि किसी जीव को हो जाये, तो उसके ज्ञान के प्रभाव से उसकी वासना नष्ट हो जाती है, क्रियमाण या प्रारब्ध कर्म का नाश हो जाता है एवं संचित कर्म भी शक्तिहीन हो जाते हैं। यही जीवन-मुक्त की अवस्था है, जिसके पश्चात् चरम पद की प्राप्ति होती है। अतः परम पद के जिज्ञासु को अनासक्त होकर कर्म को करते रहना चाहिये, क्योकि कर्म और भक्ति के बिना ज्ञान की प्राप्ति नहीं हो सकती और ज्ञान की प्राप्ति से ही परम पद की प्राप्ति होती है। मोक्ष कहीं बाहर से नहीं पाता । वह आत्मा की समग्र शक्तियों का परिपूर्ण व्यक्त होना मात्र है। सभी निवर्तकवादियों का सामान्य लक्षण यही है कि किसी प्रकार से कर्मों की जड़ नष्ट करना और ऐसी स्थिति पाना कि जहां से फिर जन्मचक्र में आना न पड़े, क्योंकि पुनर्जन्म और परलोक
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