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कर्म का सामाजिक संदर्भ ]
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कर्म का मूल क्षण हिंसा है । अहिंसा से बढ़कर दूसरी कोई साधना नहीं है । इसी अहिंसा के व्यावहारिक जीवन में पालन करने के सम्बन्ध में भगवान् महावीर के समय में भी जिज्ञासायें उठी थीं । जल में जीव हैं, स्थल पर जीव हैं, प्रकाश में भी सर्वत्र जीव हैं । जीवों से ठसाठस भरे इस लोक में भिक्षु अहिंसक कैसे रह सकता है ? हमें कर्म करने ही पड़ेंगे। मार्ग में चलते हुए अनजाने यदि कोई जीव आहत हो जावे तो क्या वह हिंसा हो जावेगी ? यदि वह हिंसा है तो क्या हम अकर्मण्य हो जावें ? क्रिया करनी बन्द कर दें ? ऐसी स्थिति में समाज का कार्य किस प्रकार सम्पन्न हो सकता है ?
महावीर ने इन जिज्ञासाओं का समाधान किया । उन्होंने अहिंसा के प्रतिपादन द्वारा व्यक्ति के चित्त को बहुत गहरे से प्रभावित किया । उन्होंने लोक के जीव मात्र के उद्धार का वैज्ञानिक मार्ग खोज निकाला । उन्होंने संसार में प्राणियों के प्रति प्रात्मतुल्यता - भाव की जागृति का उपदेश दिया, शत्रु एवं मित्र सभी प्राणियों पर समभाव की दृष्टि रखने का शंखनाद किया ।
यहाँ आकर आध्यात्मिक दृष्टि एवं सामाजिक दृष्टि परस्पर पूरक हो जाती हैं । आत्मा का साक्षात्कार करना है । श्राप क्या हैं ? “मैं”। इस “मैं” को जिस चेतना शक्ति के द्वारा जानते हैं, वही आत्मा है । बाकी अन्य सभी “पर” हैं । अपने को अन्यों से निकाल लो - शुद्ध आत्मा के स्वरूप में स्थित हो जाओ । प्रात्म साक्षात्कार का दूसरा रास्ता भी है । अपने को अन्य सभी में बाँट दो । समस्त जीवों पर मैत्रीभाव रखो । सम्पूर्ण विश्व को समभाव से देखने पर साधक के लिए न कोई प्रिय रह जाता है न कोई अप्रिय । अपने को अन्यों में बाँट देने पर आत्म तुल्यता की प्रतीति होती है । जो साधक आत्मा को आत्मा से जान लेता है, वह एक को जानकर सबको जान लेता है । एक को जानना ही सबको जानना है तथा सबको समभाव से जानना ही अपने को जानना है । दोनों ही स्थितियाँ केवल नामान्तर मात्र हैं । दोनों में ही राग-द्व ेष के प्रसंगों में सम की स्थिति है, राग एवं द्वेष से प्रतीत होने की प्रक्रिया है । राग-द्वेष हीनता धार्मिक बनने की प्रथम सीढ़ी है । इसी कारण भगवान् महावीर ने कहा कि भव्यात्माओं को चाहिए कि वे समस्त संसार को समभाव से देखें । किसी को प्रिय एवं किसी को अप्रिय न बनावें । शत्रु अथवा मित्र सभी प्राणियों पर समभाव की दृष्टि रखना ही अहिंसा है ।
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समभाव एवं आत्मतुल्यता की दृष्टि का विकास होने पर व्यक्ति अपने आप हिंसक हो जाता है । इसका कारण यह है कि प्राणी मात्र जीवित रहने की इच्छा रखते हैं । सबको अपना जीवन प्रिय है । सभी जीव जीना चाहते हैं, मरना कोई नहीं चाहता । सभी प्राणियों को दुःख अप्रिय है । इस कारण किसी
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