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[ कर्म - सिद्धान्त
हाँ जीव नहीं है वहाँ वर्षा नहीं पायी जाती । जहां जीव है वहाँ वर्षा अवश्य है । जीवमात्र श्रमजीवी है । कोई पड़े-पड़े खा नहीं सकता और मूढ़ जीवों के लिये जब यह सत्य है, तो मनुष्य के लिये यह कितने अधिक अंश में लागू होना चाहिये ? इससे भगवान ने कहा, कर्म को ब्रह्मा ने पैदा किया । ब्रह्मा की उत्पत्ति अक्षर ब्रह्मा से हुई, इसलिये यह समझना चाहिये कि यज्ञ मात्र में, सेवा मात्र में अक्षर ब्रह्मा, परमेश्वर, विराजता है । ऐसी इस प्रणाली का जो मनुष्य अनुसरण नहीं करता, वह पापी है और व्यर्थ जीता है ।
यह कह सकते हैं कि जो मनुष्य आन्तरिक शान्ति भोगता है और संतुष्ट रहता है, उसे कोई कर्त्तव्य नहीं है, उसे कर्म करने से कोई फायदा नहीं, न करने कोई हानि नहीं है । किसी के संबंध में कोई स्वार्थ उसे न होने पर भी यज्ञ कार्य को वह छोड़ नहीं सकता । इससे तू तो कर्त्तव्य-कर्म नित्य करता रह, पर उसमें राग-द्वेष न रख, उसमें आसक्ति न रख । जो अनासक्तिपूर्वक कर्म का आचरण करता है, वह ईश्वर साक्षात्कार करता है । फिर जनक - जैसे निस्पृही राजा भी कर्म करते-करते सिद्धि को प्राप्त हुए, क्योंकि वे लोकहित के लिये कर्म करते थे। तो तू कैसे इससे विपरीत बर्ताव कर सकता है ? नियम ही यह है कि जैसा अच्छे और बड़े माने जाने वाले मनुष्य आचरण करते हैं उनका अनुकरण साधारण लोग करते हैं । मुझे देख | मुझे काम करके क्या स्वार्थ साधना था ? पर मैं चौबीसों घंटा बिना थके, कर्म करता ही रहता हूँ और इससे लोग भी उसके अनुसार अल्पाधिक परिमाण में बरतते हैं । पर यदि मैं प्रालस्य कर जाऊँ तो जगत का क्या हो ? तू समझ सकता है कि सूर्य, चंद्र, तारे इत्यादि स्थिर हो जायें और इन सबको गति देने वाला, नियम में रखने वाला तो मैं ही ठहरा । किन्तु लोगों में और मुझ में इतना फरक जरूर है कि मुझे आसक्ति नहीं है, और लोग आसक्त हैं, वे स्वार्थ में पड़े भागते रहते हैं । यदि मुझ जैसा बुद्धिमान कर्म छोड़े तो लोग भी वही करेंगे और बुद्धि भ्रष्ट हो जायेंगे। मुझे तो आसक्ति रहित होकर कर्त्तव्य करना चाहिये, जिससे लोग कर्म - भ्रष्ट न हों और धीरेधीरे अनासक्त होना सीखें । मनुष्य अपने में मौजूद स्वाभाविक गुणों के वश होकर काम तो करता ही रहेगा । जो मूर्ख होता है, वही मानता है कि "मैं करता हूँ" । सांस लेना, यह जीवमात्र की प्रकृति है, स्वभाव है । आँख पर किसी मक्खी आदि के बैठते ही तुरंत मनुष्य स्वभावत: ही पलकें हिलाता है । उस समय नहीं कहता कि मैं सांस लेता हूँ, मैं पलक हिलाता हूँ । इस तरह जितने कर्म किये जायें, सब स्वाभाविक रीति से गुण के अनुसार क्यों न किये जायें ? उनके लिये अहंकार क्या ? और यों ममत्वरहित सहज कर्म करने का सुवर्ण मार्ग है, सब कर्म मुझे अर्पण करना और ममत्व हटाकर मेरे निमित्त करना । ऐसा करते-करते जब मनुष्य में से ग्रहंकार वृत्ति का स्वार्थ का नाश हो जाता है, तब उसके सारे कर्म स्वाभाविक और निर्दोष हो जाते हैं । वह बहुत जंजाल में से छूट जाता है । उसके लिये फिर कर्म - बंधन जैसा कुछ नहीं हैं और जहाँ
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