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[ कर्म सिद्धान्त
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इन विचारों की परम्परा यहीं तक नहीं जाती है किन्तु इससे पूर्ववर्ती बहुत से लेखकों ने भी ऐसे ही विचार प्रकट किये हैं। पुराणों में पुण्य और पाप महिमा इसी आधार से गाई गई है । अमितगति के 'सुभाषित रत्न सन्दोह' में दैवनिरूपण नाम का एक अधिकार है । उसमें भी ऐसा ही बतलाया है । वहाँ लिखा है कि पापी जीव समुद्र में प्रवेश करने पर भी रत्न नहीं पाता किन्तु - पुण्यात्मा जीव तट पर बैठे ही उन्हें प्राप्त कर लेता है । यथा—
'जलधिगतोऽपि न कश्चित्कश्चितटगोऽपि रत्नमुपयाति ।'
किन्तु विचार करने पर उक्त कंथन युक्त प्रतीत नहीं होता। खुलासा इस प्रकार है
कर्म के दो भेद हैं- जीव विपाकी और पुद्गल विपाकी । जो जीव की विविध अवस्था और परिणामों के होने में निमित्त होते हैं वे जीव विपाकी कर्म कहलाते हैं । और जिनसे विविध प्रकार के शरीर, वचन, मन और श्वासोच्छवास
प्राप्ति होती है वे पुद्गल विपाकी कर्म कहलाते हैं । इन दोनों प्रकार के कर्मों में ऐसा एक भी कर्म नहीं बतलाया है जिसका काम बाह्य सामग्री का प्राप्त कराना हो । सातावेदनीय और असातावेदनीय ये स्वयं जीवविपाकी हैं। 'राजवार्तिक' में इनके कार्य का निर्देश करते हुए लिखा है
“यस्योदयाद्द वादिगतिषु शारीरमानससुख प्राप्तिस्तत्सद्व द्यम । यत्फलं दुःखमनेकविधं तदसद्वे द्यम् ।” पृष्ठ ३०४ ।
इन वार्तिकों की व्याख्या करते हुए वहां लिखा है
"अनेक प्रकार की देवादि गतियों में जिस कर्म के उदय से जीवों के प्राप्त हुए द्रव्य के सम्बन्ध की अपेक्षा शारीरिक और मानसिक नाना प्रकार का सुख रूप परिणाम होता है वह सातावेदनीय है तथा नाना प्रकार की नरकादि गतियों में जिस कर्म के फलस्वरूप जन्म, जरा, मरण, इष्ट वियोग, अनिष्ट संयोग, व्याधि, वध और बन्धनादि से उत्पन्न हुआ विविध प्रकार का मानसिक और कायिक दुःख होता है वह असाता वेदनीय है ।"
'सर्वार्थसिद्धि' में जो साता वेदनीय और असातावेदनीय के स्वरूप का निर्देश किया है, उससे भी उक्त कथन की पुष्टि होती है ।
श्वेताम्बर कार्मिक ग्रंथों में भी इन कर्मों का यही अर्थ किया है । ऐसी हालत में इन कर्मों को अनुकूल व प्रतिकूल बाह्य सामग्री के संयोग-वियोग में निमित्त मानना उचित नहीं है । वास्तव में बाह्य सामग्री की प्राप्ति अपने-अपने कारणों से होती है । इसकी प्राप्ति का कारण कोई. कर्म नहीं है ।
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