SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 22
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ जैन, बौद्ध और गीता के दर्शन में कर्म का स्वरूप ] [ १८६ गया है । दोनों में जो विचार साम्य है वह एक तुलनात्मक अध्येता के लिए काफी महत्त्वपूर्ण है। गीता और जैनागम आचारांग में मिलने वाला निम्न विचार साम्य भी विशेष रूपेण द्रष्टव्य है। प्राचारांग सूत्र में कहा गया है 'अग्रकर्म और मूल कर्म के भेदों में विवेक रखकर ही कर्म कर ।' ऐसे कर्मों का कर्ता होने पर भी वह साधक निष्कर्म ही कहा जाता है। निष्कर्मता के जीवन में उपाधियों का आधिक्य नहीं होता, लौकिक प्रदर्शन नहीं होता। उसका शरीर मात्र योग क्षेत्र का (शारीरिक क्रियाओं) वाहक होता है ।' गीता कहती है आत्म विजेता, इन्द्रियजित सभी प्राणियों के प्रति समभाव रखने वाला व्यक्ति कर्म का कर्ता होने पर निष्कर्म कहा जाता है । वह कर्म से लिप्त नहीं होता। जो फलासक्ति से मुक्त होकर कर्म करता है वह नैष्ठिक शान्ति प्राप्त करता है। लेकिन जो फलासक्ति से बन्धा हुआ है वह कुछ नहीं करता हुआ भी कर्म बन्धन से बन्ध जाता है । गीता का उपरोक्त कथन सूत्रकृतांग के निम्न कथन से भी काफी निकटता रखता है । सूत्रकृतांग में कहा गया है मिथ्या दृष्टि व्यक्ति का सारा पुरुषार्थ फलासक्ति से युक्त होने के कारण अशुद्ध होता है और बन्धन का हेतु है । लेकिन सम्यक् दृष्टि वाले व्यक्ति का सारा पुरुषार्थ शुद्ध है क्योंकि वह निर्वाण का हेतु है।३ इस प्रकार हम देखते हैं कि दोनों ही प्राचार दर्शनों में अकर्म का अर्थ निष्क्रियता तो विवक्षित नहीं है लेकिन फिर भी तिलकजी के अनुसार यदि इसका अर्थ निष्काम बुद्धि से किये गये प्रवृत्तिमय सांसारिक कर्म माना जाय तो वह बुद्धि संगत नहीं होगा। जैन विचारणा के अनुसार निष्काम बुद्धि से युक्त होकर अथवा वीतरागावस्था में सांसारिक प्रवृत्तिमय कर्म का किया जाना ही सम्भव नहीं । तिलकजी के अनुसार निष्काम बुद्धि से युक्त हो युद्ध लड़ा जा सकता है। लेकिन जैन दर्शन को यह स्वीकार नहीं। उसकी दृष्टि में अकर्म का अर्थ मात्र शारीरिक अनिवार्य कर्म ही अभिप्रेत है। जैन दर्शन की इर्यापथिक क्रियाएँ प्रमुखतया अनिवार्य शारीरिक क्रियाएँ ही हैं। गीता में भी अकर्म का अर्थ शारीरिक अनिवार्य कर्म के रूप में ग्रहित है (४/२१) आचार्य शंकर ने अपने गीता भाष्य में अनिवार्य शारीरिक कर्मों को अकर्म की कोटि में माना है। . लेकिन थोड़ा अधिक गहराई से विचार करने पर हम पाते हैं कि जैन विचारणा में भी अकर्म अनिवार्य शारीरिक क्रियाओं के अतिरिक्त निरपेक्ष रूप १-आचारांग १/३/२/४, १/३/१/११०-देखिए आचारांग (संतबाल) परिशिष्ट पृष्ठ ३६-३७ । २–गीता ५/७, ५/१२। ३-सूत्रकृतांग १/८/२२-२३ । ४-गीता रहस्य ४/१६ (टिप्पणी)। ५-सूत्रकृतांग २/२/१२। ६-गीता (शां०) ४/२१ । Jain Educationa International For Personal and Private Use Only www.jainelibrary.org
SR No.229872
Book TitleJain Bauddh aur Gita ke Darshan me Karm ka Swarup
Original Sutra AuthorN/A
AuthorSagarmal Jain
PublisherZ_Jinvani_Karmsiddhant_Visheshank_003842.pdf
Publication Year1984
Total Pages23
LanguageHindi
ClassificationArticle & 0_not_categorized
File Size3 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy