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कर्म के भेद-प्रभेद ]
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नाम अकाषाय भी है ।" अकषाय का अर्थ कषाय का प्रभाव नहीं, किन्तु सत् कषाय, अल्प कषाय है । इसके नव प्रकार हैं
१ - हास्य २- रति
३-अरति
४-भय
६- नपुंसकवेद
इस प्रकार चारित्र मोहनीय की इन पच्चीस प्रकृतियों में से संज्वलन - कषाय चतुष्क और नोकषाय ये देशघाती हैं, और अवशेष जो बारह प्रकृतियाँ, हैं वे सर्वघाती कहलाती हैं । इस कर्म की जघन्य स्थिति अन्तर्मुहूर्त की है और उत्कृष्ट स्थिति सत्तर कोटाकोटि सागरोपम की है ।
५. आयुष्य कर्म :
आयुष्कर्म के प्रभाव से प्राणी जीवित रहता है और इस का क्षय होने पर मृत्यु का वरण करता है । यह जीवन अवधि का नियामक तत्त्व है । इसकी परितुलना कारागृह से की गई है । जिस प्रकार न्यायाधीश अपराधी के अपराध को संलक्ष्य में रखकर उसे नियतकाल तक कारागृह में डाल देता है, जब तक अवधि पूर्ण नहीं होती है तब तक वह कारागृह से विमुक्त नहीं हो सकता । उसी प्रकार प्रायुष्य-कर्म के कारण ही सांसारिक जीव रस, देह-पिण्ड से मुक्त नहीं हो सकता । इस कर्म की उत्तर प्रकृतियाँ चार हैं- ६
१ - नरकायु २ - तिर्यञ्चायु
१. तत्त्वार्थ राजवार्तिक - ८ / ६-१० ।।
२. स्थानांग सूत्र - टीका - २/४/१०५ ।।
३. ( क ) उत्तराध्ययन सूत्र - ३३ / २१ (ख) सप्ततिर्मोहनीयस्य ।
३- मनुष्यायु ४- देवा |
५- शोक
६-जुगुप्सा ७ - स्त्रीवेद
८- पुरुषवेद
४. प्रज्ञापना सूत्र २३ / १ ।।
५. (क) जीवस्य प्रवट्ठाणं करेदि ग्राऊ हडिव्व परं ।
(ख) सुरनरतिरिनरयाऊ हडिसरिसं
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गोम्मटसार कर्मकाण्ड - ११
६. नेरइयतिरिक्खाउं मणुस्साउं तहेव य । देवाउयं चउत्थं तु आउकम्मं चउव्विहं ॥
प्रथम कर्म ग्रन्थ - २३ ॥
उत्तराध्नयन सूत्र ३३/१२ ।।
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