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________________ स्थामाग सूत्र का प्रतिपाद्य ..... ...... । उसके अनन्तर उसी प्रकार का वर्णन अन्यत्र आने पर जहा भगवईए', 'जहा जीवाभिगमे' 'जहा पन्नवणाए' लिखकर पाठ को संक्षिप्त कर दिया जाता है, परन्तु स्थानांग में केवल नौवें स्थान में- 'जहा समवाए' यह एक ही स्थान पर आया है। इससे ज्ञात होता है कि स्थानांग का संकलन और समवायांग का संकलन साथ-साथ हुआ होगा। अलग-अलग मुनि मण्डलों द्वारा एक साथ संकलन कार्य हुआ होगा। नौवें स्थान तक लेखन कार्य होने पर पारस्परिक परामर्श चल पड़ा होगा, तभी नौवें स्थान में 'जहा समवाए' पाठ दिया गया है। स्थानांग का गणिपिटक में तीसरा स्थान इसकी प्राथमिकता का द्योतक है और साथ ही इसकी पूर्णता का भी। स्थानांग सूत्र में सूत्रकार ने कहीं-कहीं अपनी संग्रह-प्रधान कोश शैली का परित्याग भी कर दिया है, जैसे कि चतुर्थ स्थान के द्वितीय उद्देशक में नन्दीश्वर द्वीप का वर्णन, भगवान विमलवाहन का वर्णन, इसी प्रकार तृतीय स्थान के द्वितीय उद्देशक के अन्त में (३/२/४७) दिए गए प्रश्नोत्तरों में चारित्रों और पर्वतों आदि के परिचय में भी संग्रह शैली को छोड़कर वर्णन शैली को अपना लिया गया है। ऐसा क्यों हआ? यह निश्चित तो नहीं कहा जा सकता, परन्तु यह माना जा सकता है कि इस वर्णन परम्परा में किसी की जिज्ञासा के समाधान का अवसर आने पर उसे भी तत्कालीन वाचनी में उल्लिखित कर लिया गया होगा, प्रश्न उत्पन्न हुआ होगा कि क्या अन्य किसी तीर्थकर के भी नौ गण हुए हैं? सूत्रकार ने इसका समाधान कर दिया है, कि भविष्य में तीर्थंकर श्री विमल वाहन जी के भी नौ गण होंगे। संख्या द्योतक शैली जैनागमों में संख्यावाचक शब्दों की स्थापना अपनी ही शैली में की गई है, जैसे कि 'एक सौ के स्थान पर 'दसदसाई (अर्थात् दस गुणा दस संख्या) कहा जाता है। एक हजार के लिये 'दस सयाई अर्थात् (दस सौ) लिखा जाता है। इसी प्रकार 'एक लाख' के लिये 'दस-सय-सहस्साई पाठ प्राप्त होता है। इसी प्रकार तीन की संख्या के लिये 'छच्च अद्ध (स्था. ६/१९) का प्रयोग किया गया है। इस सूत्र में भरत और ऐरवत क्षेत्रों में भूतकालीन सुषम–सुषमा काल में मनुष्य शरीर की ऊँचाई छ: हजार धनुष बताई गई है, वहीं पर उनकी आयु का निर्देश क्रम प्राप्त था, परन्तु आयु तीन पल्योपम की है, अत: सूत्रकार ने छ: की संख्या का क्रम बनाए रखने के लिए 'छच्चअद्ध' अर्थात् छ: का आधा तोन- “तीनपल्योपम की आयुवाले' कहा है। यदि इस आयु का निर्देश तृतीय स्थान में किया जाता तो इस प्रकरण के साथ उस प्रकरण का कोई संबंध न रह जाता, अत: 'छच्च अदकी शैली को क्लिष्ट कल्पना नहीं कहा जा सकता। Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.229811
Book TitleSthanang Sutra ka Pratipadya
Original Sutra AuthorN/A
AuthorTilakdhar Shastri
PublisherZ_Jinavani_003218.pdf
Publication Year2002
Total Pages14
LanguageHindi
ClassificationArticle & 0_not_categorized
File Size223 KB
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