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________________ स्थानांग सूत्र का प्रतिपाद्य ... . 1451 'अकाममरणिज्जगज्झयणं' 'अकाम गरणीयमध्ययनम्'। इस अध्ययन-नाम से ही पूरे अध्ययन के वर्ण्य-विषय का बोध हो गया है। अध्ययन शब्द विषय-ग्रहण पूर्वक स्वाध्याय का निर्देश करना है, क्योंकि अधि-अपने आप में, अयन-गमन। शास्त्र का इस प्रकार से अध्ययन जिससे कि अध्येता वर्ग-विषय के साथ तादात्म्य स्थापित करके आत्मनिष्ठ हो जाय। निक्षेप के अनुसार नाम-अध्ययन, स्थापना-अध्ययन, द्रव्य-अध्ययन और भाव-अध्ययन के रूप में चार प्रकार के अध्ययन बताए गए हैं, परन्तु शास्त्रकारों को चारों में से भाव अध्ययन ही विशेष रूप से इष्ट है। शास्त्रकार उसे भाव अध्ययन कहते हैं जिसके अध्ययन से शुभ कर्म में प्रवृत्ति हो, आत्म-तत्त्व का स्मरण हो और उत्तरोत्तर ज्ञान की वृद्धि हो। अध्ययन को 'अक्षीण' भी कहा जाता है, क्योंकि स्वाध्याय से ज्ञान कभी क्षीण नहीं होने पाता। अध्ययन को 'आय' भी कहा जाता है, क्योंकि इससे ज्ञान, दर्शन और चारित्र का लाभ होता है। अध्ययन को 'क्षपणा' भी कहते हैं, क्योंकि स्वाध्याय से ज्ञानावरणीय आदि कर्मों का क्षय होता है। स्थानांग सूत्र के स्वाध्याय की भी यही विशेषता है, अत: इसका अध्ययनों में विभागीकरण किया गया है। पद संख्या जैनागमों में पद संख्या का निर्णय एक जटिल समस्या है जैसे कि समवायांग सूत्र में स्थानांग की पद संख्या ७२ हजार बताई गई है। नन्दीसूत्र में भी 'बावतरि-पय-सहस्सा' कह कर ७२ हजार पद संख्या का ही निर्देश किया गया है। दिगम्बर सम्प्रदाय स्थानांग को पद संख्या ४२००० बताता है, परन्तु वर्तमान में उपलब्ध किसी भी प्रति में यह पदसंख्या प्राप्त नहीं होती। पद क्या है? व्याकरण शास्त्र में विभक्ति युक्त सार्थक शब्द को एवं प्रत्ययान्त धातु रूप को पद कहा गया है। इस दृष्टि से 'राम: वनं गच्छति'' इस वाक्य में तीन पद है। 'यत्रार्थोपलब्धिस्तत्पदम्' की उक्ति के अनुसार पूर्ण अर्थ के परिचायक वाक्य को भी पद कहा जाता है। इस दृष्टि से "राम: वनं गच्छति' यह एक वाक्य ही पद है। श्रीहरिभद्र और आचार्य मलयगिरि को पट की यही परिभाषा इष्ट है। छन्द शास्त्र में पद्य की एक पंक्ति को पद कहा जाता है। जैसे कि "एसो पंच णमोक्कारो' यह अनुष्टुप छन्द का एक पद है। दिगम्बर सम्प्रदाय अर्थ-पद, प्रमाण-पद और मध्यमपट भेदों के रूप में तीन प्रकार के पट मानता है। ऊपर प्रदर्शित प्रथम और द्वितीय पद अर्थ पद है और छन्द्र शास्त्रोक्त पद को प्रमाण पट कहा जा सकता है, क्योंकि उसमें Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.229811
Book TitleSthanang Sutra ka Pratipadya
Original Sutra AuthorN/A
AuthorTilakdhar Shastri
PublisherZ_Jinavani_003218.pdf
Publication Year2002
Total Pages14
LanguageHindi
ClassificationArticle & 0_not_categorized
File Size223 KB
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