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| सूत्रकृतांग का वर्ण्य विषय एवं वैशिष्ट्य
107 करते हुए लिखा---
"एवं खु तासु विष्णप्पं, संथवं संवासं च चएज्जा।
तज्जातिया इमे कामा, वज्जकरा य एवमक्खया।।" 4/50
इस प्रकार स्त्रियों के विषय में जो कहा गया है(उन दोषों को जानकर) उनके साथ परिचय और संवास का परित्याग करे। ये काम भोग सेवन करने को बढ़ते हैं। तीर्थकों ने उन्हें कर्म-बन्धन कारक बनलाया है।
पंचम अध्ययन का नाम 'नरक विभक्ति' है। नरक में जीव को किस्म प्रकार के भयंकर कष्ट भोगने पड़ते हैं उसका वर्णन इसमें किया गया है। वैटिक, जैन और बौद्ध तीनों ही परम्पराओं में नरकों का वर्णन है। योग सूत्र के व्यास भाष्य में सात नहानरकों का वर्णन है। बौद्ध ग्रन्थ 'कोकालिय' नामक सुत्त में नरकों का वर्णन है। यह वर्णन इस अध्याय से बहुत कुछ मिलना जुलता है।
___ षष्ठ अध्ययन का नाम 'महावीरत्थुई' (महावीर स्तुति) है। इसमें श्रमण भगवान महावीर की विवधि उपमाएं देकर स्तुति की गयी है। यह महावीर की प्राचीनतम स्तुति है। महावीर को इसमें हाथियों में ऐरावत, मृगों में सिंह, नदियों में गंगा और पक्षियों में गरुड़ की उपमा देते हुए लोक में सर्वोत्तम बताया है। भगवान महावीर की प्रधानता के संदर्भ में लिखा है
"दाणाण सेठं अमयप्पयाण, सच्चेसु य अणवज्ज वयंति।
तवेसु या उत्तम बंभचेर, लोगुत्तमे सभणे णायपुत्ते ।।" 6/23
जैसे दानों में अभयदान, सत्य वचन में अनवद्य वचन, तपस्या में ब्रह्मचर्य प्रधान होता है, वैसे ही श्रमण ज्ञान पुत्र लोक में प्रधान हैं।
इस प्रकार भगवान महावीर के अनेक गुणों का वर्णन इस अध्ययन में है।
सप्तम अध्ययन 'कुसीलपरिभासित' (कुशील परिभाषित) है। इसमें शील, अशील और कुशील का वर्णन है। कुशील का अर्थ अनुपयुक्त व अनुचित व्यवहार वाला है। जो साधक असंयमी है, जिनका आचार विशुद्ध नहीं है, उनका परिचय इस अध्ययन में किया गया है। यहां तीन प्रकार के कुशीलों की चर्चा की गई है । वे इस प्रकार हैं-- 1. अनाहार संपज्जण आहार में मधुरता पैदा करने वाले, नमक के त्याग से
मोक्ष मानने वाले। 2. सीओदग सेवण- शीतल जल के सेवन से मोक्ष मानने वाले। 3. हुएण- होम से मोक्ष मानने वाले।
यहाँ स्पष्टतया बताया है कि तपस्या से पूजा पाने की अभिलाषा न करें। तप मुक्ति का हेतु है। पूजा सत्कार या इसी प्रकार की दूसरी
आकांक्षाओं की पूर्ति के लिए इसका उपयोग न करें। जो पूजा सत्कार के निमित्त नपस्या करना है, वह नन्व का ज्ञाता नहीं है!
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