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जिनवाणी- जैनागम-साहित्य विशेषाड़क आचारांग सूत्र का प्रथम उद्घोष ... आत्मबोध से प्रारम्भ होता है। ब्रहासूत्र जिस प्रकार अथातो ब्रहा-जिज्ञासा से प्रारम्भ होता है। आचारांग भी भाव रूप में अथातो आत्म-जिज्ञासा से आरम्भ होता है और आचारंग का अन्तिम रूप आत्म साक्षात्कार के शिखर तक पहुँचा देता है :
'आचार' शब्द से ध्वनित होता है कि इस सत्र का प्रतिपाद्य आचार धर्म है! 'आचार' का अर्थ यदि 'चारित' तक सीमित रखें तो यह अर्थबोध अपूर्ण है, अपर्याप्त है। आचार से यदि हम पंचाचार का बोध करते हैं तो अवश्य ही इस आगम में ज्ञानाचार, दर्शनाचार, चारित्राचार, तपाचार और विनयाचार रूप आचार धर्म का संकेतात्मक सार उपलब्ध है। आचारांग में तत्त्व दर्शन के मूल आत्मदृष्टि से संबंधित सूत्र उद्यान में फूलों की तरह यत्र. तत्र बिखरे हुए हैं।
आचार्य सिद्धसेन ने जैन तत्त्व दृष्टि के आधारभूत छह सत्य स्थान बताये हैं
"अस्थि अविणासधम्मी करेइ वेदइ अत्थि निव्वाणं।
अस्थि य मोक्खोवाओ छ सम्मत्तस्स ठाणाई।।" ..सन्मति प्रकरण 3/55
१. आत्मा है २. आत्मा अविनाशी है ३. आत्मा कर्मों का कर्ता हैं ४. आत्मा ही कर्मों का भोक्ता है ५. कर्मों से मुक्ति रूप निर्वाण है ६. निवार्ण का उपाय भी है।
ये छह चिन्तन सूत्र सम्यक्त्व के मूल आधार माने गये हैं। अत्मवाद का सम्पूर्ण दर्शन इन्ही छह स्तम्भों पर आधारित है। आचारांग सूत्र में ये छह सूत्र यथाप्रसंग अपने विस्तार के साथ उपलब्ध हैं और उन पर सूत्रात्मक चिन्तन भी है। 1. अस्थि मे आया- मेरी आत्मा है, वह पुनर्जन्म लेने वाली है। इसी सूत्र से आचारांग की सम्पूर्ण विषय वस्तु का विस्तार होता है। 2. जो आगओ अणुसंचरइ सोऽहं- जो इन सभी दिशाओं-अनुदिशाओं में, सम्पूर्ण जगत् में अनुसंचरण करता है, जो था, है और रहेगा, वह मैं ही हूँ। इस सूत्र में आत्मा का अविनाशित्व सूचित किया गया है। 3. पुरिसा, तुममेव तुम मित्त-जीवेण कडे पमाएणं- "हे पुरष! तू ही तेरा मित्र हैं, तू ही तेरा सुख-दु:ख का कर्ता है। यह सब दु:ख जीव ने ही प्रमादवश किये है।' यह आत्म-कर्तृत्व का संदेश है : 4. तुमं चेव तं सल्लमाहटु- "हे पुरुष! तू ही अपने शल्य का उद्धार कर सकता है।'' अपने कृत कर्मों को स्वयं ही भोग करके निर्जरा करने का संदेश इस सूत्र में व्यक्त होता है। 5. अणण्ण-परमणाणी णो पमायए कयाइ वि- ज्ञानी पुरुष अनन्यपरम- जो सबसे श्रेष्ठ है और परम है वह निर्वाण, उस निर्वाण की उपलब्धि के लिए क्षण मात्र भी प्रभाद न करे। यह कर्भमुक्ति रूप निर्वाण का संकेत है।
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