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________________ 92 जिनवाणी- जैनागम साहित्य विशेषाङ्क उत्पन्न सुख-दुःख से एकीकरण करके सुखी - दुःखी होता रहता है। मूर्च्छित मनुष्य स्व-अस्तित्व (आत्मा) के प्रति जागरूक नहीं होता है । वह अशांति से पीड़ित होता है, समता भाव से दरिद्र होता है, उसे अहिंसा पर आधारित मूल्यों का ज्ञान देना कठिन होता है तथा वह अध्यात्म को समझने वाला नहीं होता है (१८) । मूर्च्छित मनुष्य इन्द्रिय-विषयों में ही ठहरा रहता है (२२) | वह आसक्ति युक्त होता है और कुटिल आचरण में ही रत रहता है (२२) | वह हिंसा करता हुआ भी दूसरों को अहिंसा का उपदेश देता रहता है (२५) । इस तरह से वह अर्हत् ( जीवन मुक्त) की आज्ञा के विपरीत चलने वाला होता है (२२,९६) । स्व - अस्तित्व के प्रति जागरूक होना ही अहं की आज्ञा में रहना है। इस जगत् में यह विचित्रता है कि सुख देने वाली वस्तु दुःख देने वाली बन जाती है और दुःख देने वाली वस्तु सुख देने वाली बन जाती है। मूर्च्छित (आसक्ति युक्त) मनुष्य इस बात को देख नहीं पाता है (३९)। इसलिये वह सदैव वस्तुओं के प्रति आसक्त बना रहता है, यही उसका अज्ञान है (४४) । विषयों में लोलुपता के कारण वह संसार में अपने लिए वैर की वृद्धि करता रहता है (४५) और बार-बार जन्म धारण करता रहता है (५३) । अतः कहा जा सकता है कि मूर्च्छित (अज्ञानी) मनुष्य सदा सोया हुआ अर्थात् सन्मार्ग को भूला हुआ होता है (५२) । जो मनुष्य मूर्च्छारूपी अंधकार में रहता है वह एक प्रकार से अंधा ही है। वह इच्छाओं में आसक्त बना रहता है और उन इच्छाओं की पूर्ति के लिए वह प्राणियों की हिंसा में संलग्न होता है (९८) । वह प्राणियों को मारने वाला छेदने वाला, उनकी हानि करने वाला तथा उनको हैरान करने वाला होता है (२९) इच्छाओं के तृप्त न होने पर वह शोक करता है, क्रोध करता है, दूसरों को सताता है और उनको नुकसान पहुंचाता है (४३) । यहाँ यह समझना चाहिए कि सतत हिंसा में संलग्न रहने वाला व्यक्ति भयभीत होता है। आचारांग ने ठीक ही कहा है कि प्रमादी (मूर्च्छित) व्यक्ति को सब ओर से भय होना है। (६९) वह सदैव मानसिक तनावों से भरा रहता है। चूंकि उसके अनेक चित्त होते हैं, इसलिए उसका अपने लिए शांति (तनाव मुक्ति) का दावा करना ऐसे ही है जैसे कोई चलनी को पानी से भरने का दावा करे (६०) मूच्छिंत मनुष्य संसाररूपी प्रवाह में तैरने के लिए बिल्कुल समर्थ नहीं होता है (३७) वह भोगों का अनुमोदन करने वाला होता है तथा दुःखों के भंवर में ही फिरता रहता है (३८)। वह दिन-रात दुःखी होता हुआ जीता हैं। वह काल - अकाल में तुच्छ वस्तुओं की प्राप्ति के लिए प्रयत्न करता रहता है। वह केवल स्वार्थपूर्ण संबंध का अभिलाषी होता है। वह धन का लालची होता है तथा व्यवहार में ठगने वाला होता है। वह बिना विचार किए कार्यों को करने वाला होता है तथा विभिन्न समस्याओं के समाधान के लिए बार-बार शस्त्रों / हिंसा के प्रयोग को ही महत्त्व देता है (२६) । . Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.229806
Book TitleAcharang Sutra me Mulyatmak Chetna
Original Sutra AuthorN/A
AuthorKamalchand Sogani
PublisherZ_Jinavani_003218.pdf
Publication Year2002
Total Pages11
LanguageHindi
ClassificationArticle & 0_not_categorized
File Size191 KB
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