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जिनवाणी-- जैनागम-साहित्य विशेषाङ्क | ७. देखिए 'इसिपासियाई का प्राकृत - संस्कृत शब्दकोश, के.आर. चन्द्र, प्राकृत टेक्स्ट
सोसायटी, अहमदाबाद १९९८ ८. इस पद्धति से यह निर्विवाद प्रमाणत होता है कि प्राचीन प्रतियों में मध्यवर्ग व्यंजन
लगभग पालि भाषा की तरह ही यथावत् पाये जाते थे, परंतु परवर्ती काल की प्रनियों में महाराष्ट्री प्राकृत (ध्वनि पवर्तन) के नियमों को लागू करके उनका (अल्पप्राण का) लोग और (महाप्रा का) '' कर दिया गया. यह सब प्रक्रिया / परिवर्तन आचायों, उपाध्यायों और टाहाकी के मार्गदर्शन में ही हुआ है, जैसा कि आगम प्रभाकर मुनि श्री पुग्यजियजी का गन्तव्य है जो आगम साहित्य के गहन अध्येता और अद्वितीय संशोधक माने जाते हैं। इस प्रकार के परिवर्तन लेहियों (लिपिकार) के द्वारा ही नहीं किये गये हैं और मात्र उनको ही यह दोष देना सर्वथा अयोग्य गिना जाना चाहिए। लिनिकार आगमों और उनकी भाषः के विद्वान नहीं थे। विद्वान् ते जैनाचार्य, उपाध्याय और मुनिगण थे और वे ही भगवान महावीर के उपदेशों की मूल भाषा सुरक्षित नहीं रख सके। इसे क्या कहा जाय 'प्रमाद' या 'व्यावहारिक कुशलता'? परिस्थितिवश इस प्रकार के भाषिक परिवर्तन आ गये होंगे, परंतु इन परिवर्तनों से भगवान महावीर को मूल भाषा विकृत हो गयी और इसके कारण कुछ विद्वान "जिनागमो' को प्राचीनता के विषय में शंका करते हुए
संकोच नहीं करते है। ९. प्रो. याकोबी ने अपने आचारांग के संस्करण में कुछ शब्द-प्रयोगों में किसी-किसी
व्यंजन को टेढा (italicise) किया है। ऐसा इसलिए करना पडा कि ताडपत्रों की पुरानी हसाप्रतों में तो मध्यवर्ती व्यंजन यथावत मिलता था, परंतु परवती कागज की प्रनों में उसी प्रकार के प्रयोगों में मध्यवर्ता व्यंजनों का लेप और मध्यवर्ती महाप्राण का 'ह' मिल रहा था। यह भेद दर्शाने के लिए उन्होंने इस पद्धति की शरण ली है। इससे कितना स्पष्ट हो रहा है कि परवर्ती प्राकत व्याकरणों के नियमों के प्रभाव में न आकर मूल प्रतियों में जैसे पाठ मिल रहे थे वैसे ही पाठ प्रो. याकोबी ने अपनाये हैं इससे कितना स्पष्ट हो रहा है कि मूल अर्धमागधो के प्रयोग किस प्रकार कालान्तर में महाराष्ट्री प्राकृत से प्रभावित होते रहे हैं। उन्होंने हस्तप्रतों में उपलळा हो रहे किसी भी पाठ के साथ छेड़छाड़ नहीं की, परंतु जिस प्रकार के प्रयोग (पाठ) मिल रहे थे उन्हें विविध हस्तप्रतों के अनुसार वैसा ही आनाया है। इस प्रकार उन्होंने हस्तप्रतों के पाठों को विश्वसनीयता बन्गये रखी। उन्होंने अपने 'आचनांग' के संस्करण में अर्धमागधी प्राकृत भाषा के लिए परवर्ती प्राकृत व्याकरण कारों के मध्यवर्ती व्यजनों के ध्वनि परिवर्तन के नियमों पर अत्यधिक भार नहीं दिया, क्योंकि उनको यह पूरी जानकारी थी कि अर्धमागधी भाषा एक प्राचीनतम प्रकत हैं जो पालि भाष के अधिक नजदीक है और किसी भी प्राकृत व्याकरणकार ने उसका व्यवस्थित और विस्तृत व्याकरण हो नहीं लिखा। ऐसी अवस्था में उसके मूल प्रयोगों को महाराष्ट्री में बदलना दोषयुक्त बन जाएगा। प्रो. याकोबो की यह सर्वथा योग्य और प्रशंसनीय पद्धति आज हमें यथातथ्य उचित मार्गदर्शन दे रही है. इसमें शंका को कोई स्थान नहीं है। प्रो. याकोबी की इस पद्धति का लाभ पाश्चात्त्य और भारतीय संपादक ने क्यों नहीं उठाया और इससे कोई बोध-पाठ क्यों नहीं लिया यह एक आश्चर्य की
बात है। १० देखिए ऊपर का पाद टिपण नं. ४।
यहां पर जिन-जिन संस्करण क उपयोग दिया गया है वे इस प्रकर है.
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